"के जिसके दिए ज़ख़्म हैं वो ही दवा करता,
जिए औलाद क़यामत तलक़, दुआ करता,
चलूँ दो रोटी कमा लाऊँ मैं बच्चों के लिए,
यही एहसास मुझे रोज़ फ़िर जवाँ करता,
बुढ़ापे में दिलोदिमाग़ जो मुर्दा हो चला,
होना बच्चों का रूबरू फ़क़त रवाँ करता,
वो हवा जो है ज़रुरी चिराग़ के ख़ातिर,
बुझाने का हक़ अदा भी वही हवा करता,
कल तलक़ मैंने जिसे ख़ून-ए-ज़िगर से सींचा,
आज वो बात-बात पर मुझे रुसवा करता,
ग़ैर तो ग़ैर हैं 'राज़' उनसे शिक़ायत कैसी,
अजाब ज़ीस्त ये, जो रुसवा हमनवा करता।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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