"है, दौर-ए-ज़ुल्म, मुहब्बत नहीं रही अब तो,
किसी से शिक़वा,शिक़ायत नहीं रही अब तो,
जब से भगवान मेरा मिल गया मुझे खुद में,
के मुझ में बुत की इबादत नहीं रही अब तो,
नमाज़ जब से चौबीसों घंटे की शुरु की है,
सिर झुकाने की आदत नहीं रही अब तो,
मैंने जब भी किया सज़दा-ए-वालिदैन किया,
कहीं और सज़दे की ज़रुरत नहीं रही अब तो,
बिका-लुटा सा आदमी, ग़रीब दिखता है,
कहीं सत्ता से बग़ावत, नहीं रही अब तो,
आदमी, आदमी का ख़ून पी रहा है यहाँ,
किसी अपने से इनायत नहीं रही अब तो,
शेर जब शेर से लड़े तो मज़ा आता है,
मुझे गीदड़ से अदावत नहीं रही अब तो,
ये पूरा दौर! जैसे हो चला नामर्द लगे,
किसी सितम की ख़िलाफ़त नहीं रही अब तो ,
किया क्या इश्क़, लगे जैसे ख़ुदकुशी कर ली,
रबक़सम जीने की चाहत नहीं रही अब तो,
अजीब भीड़तंत्र, कौन, किसकी सुनता है,
कोई मज़बूत सियासत नहीं रही अब तो,
बड़े सुलझे हुए शातिर हैं हुक़्मरान यहाँ,
'राज़' सूफ़ी की हुक़ूमत नहीं रही अब तो।। ''
संजय कुमार शर्मा "
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