"हिन्दू मिला मुझे औ मुसलमान मिल गया,
सूरत-ए-राज़ में मुझे, इन्सान मिल गया,
दंगे-फ़साद-सियासत औ मज़हबी मसले,
भारत के नाम पर ये हिन्दुस्तान मिल गया,
था मेज़बानी का ज़ुनूँ तो मुझको यक़-ब-यक़,
दिल लूटने वाला कोई, मेहमान मिल गया,
कोई किसी का, अब नहीं रहा ज़मीन पर,
बस्ती के नाम पर ये क़ब्रिस्तान मिल गया,
वो वक़्त की ताक़त से भला कौन जीतता,
हर राह पे एक खंडहर, वीरान मिल गया,
सुना है इमारतें बनेंगीं, मंज़िलों वाली,
उजड़े चमन में रोता, बाग़बान मिल गया,
थे कल तलक़ दरख़्त, फ़ख़्र से जहाँ खड़े,
उस जगह या' ख़ुदा कोई मैदान मिल गया,
इंसानियत का सबक़, काश कोई पढाता,
गीता मिली कहीं, कहीं क़ुरआन मिल गया,
ख़ुद के ज़मात की जड़ें वो काटता दिखा,
माली के नाम पे मुझे शैतान मिल गया,
है तीरग़ी के ज़श्न में डूबी हुई मेहफ़िल,
इक़ शम्मा जलाता हुआ नादान मिल गया।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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