"जब से उसको एक नज़र-एक नज़र देखा है,
ख़ुद पे फ़रहाद का, मजनूं का असर देखा है,
इश्क़ क्या है? फ़क़त इक आग का दरिया समझो,
मैंने ख़ुद कर के अपना, चाक जिगर देखा है,
शानो-शौक़त रही, जहाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में,
उसी महल में अब उल्लू का बसर देखा है,
कल तलक़ छाँव में खेला किए थे जिसके हम,
बनाने कोई सड़क, कटता शजर देखा है,
न जाने किसने? मज़हबों की आग पैदा की,
अब उसी आग से इक जलता शहर देखा है,
कहीं बादल फटे, बिजली गिरे, ज़मीन फटे,
'राज़' हर सूँ, मैंने क़ुदरत का कहर देखा है।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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