"क़ाश ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ भर जाते,
हम भी दुनिया से कूच कर जाते,
कोई तो आता गली में अपनी,
हम भी ज़रा महक-सँवर जाते,
क़त्ल करने की क्या ज़ुरूरत थी,
इश्क़ कर लेती, यूँ ही मर जाते,
मेरी चाहत थी निक़ाह साथ तेरे,
तुझको लेने तेरे शहर जाते,
शुक़्र है हुस्न दूर से निकला,
उनके छूने से हम सिहर जाते,
तुम ही थीं जानोज़िन्दग़ी मेरी,
तुमसे हम रूठ कर किधर जाते,
जो पास होता तेरे घर का पता,
नहीं मस्ज़िद को तेरे घर जाते,
एक मौक़ा जो वस्ल का देती,
चाँद-तारों से मांग भर जाते,
'राज़' उल्फ़त ने बाँधे रक्खा है,
वर्ना हम टूट कर बिखर जाते।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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