"लाश अपनी ही तुम अपने काँधे पे ढोते क्यों हो,
वक़्त बरबाद करते दिन में भी,सोते क्यों हो,
मेरे जाने पे ऐ मातम मनाने वालों सुनो,
सबको जाना है इस जहाँ से तो रोते क्यों हो,
हवस के शोले नज़र आते थे जिन आँखों में कल तक,
उन्हीं आँखों को आज नादाँ, तुम भिगोते क्यों हो,
अश्क़ के मोती हैं ज़न्नतों की आब 'राज़' सुनो,
गोश्त के धागों में पाक़ मोती तुम पिरोते क्यों हो,
डूबती क़श्ती को है तिनक़े का सहारा भी बहुत,
हटा के तिनका "राज़" क़श्ती तुम डुबोते क्यों हो,
जब तलक़ ज़िन्दा था,नफ़रतों का दौर ज़िन्दा था,
वो ग़ुनाह अपने आँसुओं से तुम धोते क्यों हो,
ये है दोआब,यहाँ नेक़ी की फ़सल उगने दो,
बदी के दाने, ज़मीन पाक़ पे बोते क्यों हो।"
संजय कुमार शर्मा "राज़"
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