"मुझे वो अपना नाम देती है,
सुक़ूँ की सुबहो शाम देती है,
ज़िन्दा भगवान है,ज़मीन पे ख़ुदा वो मेरा,
दे कर टुकड़ा, वो लोहे का अन्दाम देती है,
दिला कर वो मुझे तालीम सुनो,यार मेरा,
वो मेरी ज़ीस्त को जायज़ मकाम देती है,
करती है काम फ़क़त अपने बच्चों की ख़ातिर,
ख़ुद को थका के, वो मुझको आराम देती है,
पकड़ के उंगलियाँ, लगा के अपने सीने से,
ले के बोसा, वो ज़िन्दग़ी के जाम देती है,
सिखाती है मुझे तहज़ीब,पाक़ नाम-ए-ख़ुदा,
इश्क़ का अलहदा सूफ़ी क़लाम देती है,
पढ़ाती है नमाज़ क्या है, "राज़" दोस्त मेरी,
मुझे ख़ुदा, क़ाबे का एहतराम देती है।।"
संजय कुमार शर्मा "राज़"
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