"मर्ज़ होता, तो मैं दवा करता,
हो गया इश्क़ तो मैं क्या करता,
जब भी बेपर्दा वो हिज़ाब हुवा,
दिल को हर बार नौजवाँ करता,
जानता इश्क़ ख़ुदक़ुशी है तो,
दिलेनादाँ क्यूँ ये ख़ता करता,
क़ाश फ़ितरत शहीद की मिलती,
वास्ते मुल्क़ वो मरा करता,
इन्साँ जो जानवर नहीं होता,
ग़ुनाह करने से डरा करता,
जब भी इक ज़ख़्म इश्क़ का सूखा,
ख़ुद पे इक ज़ख़्म मैं, नया करता,
ग़मज़दा फिर भी मैं ख़ातिर उसके,
मुसल्सल इक नई दुवा करता,
मिरा हक़ीम, मिरा क़ातिल था,
दर्द वो किस से मैं, बयाँ करता,
उसके जैसा, जो मिले क़ाश कोई,
शुरू मैं फिर से सिलसिला करता,
अता हुनर वो, मेरे मौला कर,
ख़्वाब में उनसे मैं मिला करता,
'राज़' आँखों में समन्दर मेरे,
अश्क़ बेसाख़्ता बहा करता।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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