"राह चिकनी, फ़िसल गया होगा,
गिर के वो फिर संभल गया होगा,
वास्ते फ़क़त इक झलक उसके,
शाम होते ही निकल गया होगा,
चाँद को दे के रौशनी शब भर,
सुबह फिर से निकल गया होगा,
मेरा ये दिल, दिलेआशिक़ है तो,
देख उसको मचल गया होगा,
तेल कितना था, बाती कितनी थी,
रात भर में वो जल गया होगा,
पास आतिश के, मोम के जैसा,
आँच पा कर, पिघल गया होगा,
उसको पाने की चाहतों में कोई,
ख़्वाब आँखों में पल गया होगा,
फ़ितरतेयार भी मौसम जैसा,
पल झपकते, बदल गया होगा,
क्या करे? ज़ात आदमी की है,
मौक़ा पा कर बदल गया होगा,
'राज़' का दिल फिर नए धोखे से,
टूट कर फिर, बहल गया होगा।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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