"ज़िन्दग़ी चार पहर है, शराब सस्ती है,
बेवफाओं का शहर है, शराब सस्ती है,
हर तरफ़ दौरेज़ुल्म और सियासत घटिया,
ये तो इंसानी क़हर है, शराब सस्ती है,
जीना पड़ता है चाहने से मौत कब मिलती,
ज़िन्दग़ी लम्बा सफ़र है, शराब सस्ती है,
दौरेमहँगाई में दो वक़्त की रोटी मुश्क़िल,
भूख़ से मरने का डर है, शराब सस्ती है,
मेरा मंदिर, मिरा मस्ज़िद, मेरा गिरजा,
गद्दी, मैक़दा ही मेरा घर है, शराब सस्ती है,
जैसे ठहरे हुए पानी में पड़े पत्थर और,
उठ रही फ़िर से लहर है, शराब सस्ती है,
घना साया सुक़ून से भरा जो देता है,
लगे बरगद का शज़र है, शराब सस्ती है,
कहाँ पहेचानता है बेवफ़ा माशूक़ को वो,
मिरा साक़ी हमसफ़र है, शराब सस्ती है,
आदमी, आदमी के वास्ते दो कौड़ी का,
यहाँ पे सबकी क़दर है, शराब सस्ती है,
ज़फ़ा के दौर में, इसका ही सहारा मिलता,
'राज़' आशिक़ की नज़र है, शराब सस्ती है।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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