"मेरी ख़लिश के बराबर का जाम पीता हूँ,
ख़ुश्क़ होठों से ले के तेरा नाम, पीता हूँ,
न जाने क्यूँ मुझे फ़कीरी रास आती है,
नवाब हो के भी मैं, जाम आम पीता हूँ,
कभी परवा नहीं करता मैं बुतोमस्ज़िद की,
मैं कभी काबे का कर के एहतराम पीता हूँ,
जिस तरह पाँच वक़्त, मुसलमाँ नमाज़ पढ़े,
उसी तरहा मैं जाम, सुबहोशाम पीता हूँ,
नहीं क़िताब पढ़ी, न ही कोई इबादत की,
चौबीसों घंटे 'राज़' सूफ़ी क़लाम पीता हूँ।।"
(लगातार)
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY