पुष्प के अधरों का रूप
पंखुड़ियों की आह को
अब न सुना
भवरों /तितलियों ने
पंछियों ने भी अपने पंख
तालियों के अभिवादन /कलरव को
अब कुछ पलों के लिए रोक लिया
मानों भूकम्प आया हो
प्रकृति कि परिभाषा कौन समझे ?
भाग दौड़ की जिंदगी में
फेल रहे प्रदूषण को रोकने का समय
शायद इंसान के पास नहीं है
भयभीत कीट -पतंगे भी
स्वर्ग समझ रहे थे बाग- बगीचों को
शूल अस्त्र लेकर
प्रदूषण के आगे बन गए मौन
मृग तृष्णा बन वायु भी
अब दुर्गन्ध प्रदूषण से
मुँह छुपाकर
सिसक रही है
पुष्प से निकली
आह को शायद
अब सच में सुन लिया था
क्योकि उनका दम अब
प्रदूषण से घूटने जो लगा था
संजय वर्मा "दृष्टि
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