बेटे को गाँव से शहर पढ़ने को भेजा
माँ साँझ-सवेरे पूछती है हाल
बेटा खाना खा लिया की नहीं
बेटा हाँ ही कहता
जब भी घर में कुछ नया बनता तो
खाते वक्त याद आ जाती
ये तो सभी के साथ होता है ।
किंतु जिनकी बेटियाँ हो तो
शिक्षा के बाद
शादी हो कर जाती दूसरे घर में
जहाँ पर हर चेहरे/रिश्ते नए
माँ जब खाना खाती
तब ऐसा लगता
बेटी होती तो काम में
हाथ बटाती ।
कभी ऐसा लगता जैसे बेटी ने
आवाज दी हो
वार -त्योहारों पर आती उसकी यादें
माँ की आँखों में
बहने लग जाते आँसू ।
पडोसी /रिश्तेदार पूछते
क्या हो गया
झूठ -मूट कह देती
कुछ नहीं ।
जिनकी बेटियाँ होती है
वो ही इस मर्म को समझ सकती
बोल उठती
क्या बेटी की याद आ रही है
रोते हुए "हाँ " शब्द
निशब्द बन जाते है ।
रिश्तो कि फ़िल्म ही जीवन में
कुछ इस तरह चलती है
पहला भाग बाबुल का होता है
मध्यांतर हो जाता
पिया का घर
यही तो जीवन का सच है
वार -त्यौहारों पर
किसी से बेटी कि शक्ल मिलने पर
उसे मन निहारता रहता
और आँखों से आँसू
यादों के रूप में गिराता रहता ।
इसलिए हर इंसान के दिल में
यादेँ बसाई है
जो मर्म को समझ कर
इंतजार करवाती है और
आँखों से आँसू गिरवाती है
फिर कोई पूछता है की
क्या हुआ -क्या बिटियाँ की
याद आ रही है
तब माँ कहती हाँ
यही क्रम हर घर में चलता है
जिनकी बेटियाँ होती है ।
संजय वर्मा"दृष्टि "
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