हमारे शास्त्रों में दो भागों का वर्णन बतलाया गया है -एक का नाम प्रवृत्ति धर्म और दूसरे को निवृत्ति धर्म कहा गया है ।प्रवृत्ति मार्ग को कर्म और निवृत्ति मार्ग को ज्ञान भी कहते है । कर्म (अविधा अ से मनुष्य बंधन में पड़ता है और ज्ञान से वह बंधनमुक्त हो जाता है । कर्म से मरने के बाद जन्म लेना पड़ता है , सोलह तत्वों से बने हुए शरीर की प्राप्ति होती है । किन्तु ज्ञान से नित्य , अव्यक्त एव अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते है । कुछ अल्पज्ञानी मानव कर्म की प्रशंसा करते है, अत: वे भोगासक्त होकर बार -बार देह के बंधन में पड़ते रहते है । परन्तु जो मनुष्य धर्म के तत्व को भलीभांति समझते है तथा जिन्हें उत्तम बुध्दि प्राप्त है , वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते ,जेसे नदी का पानी पीने वाला मनुष्य कुएँ का आदर नहीं करता । कर्म के फल मिलते है --सुख ओर दुःख , जन्म और मृत्यु । किंतु ज्ञान से उस पद की प्राप्ति होती है ,जहाँ जाकर मनुष्य सदा के लिए शोक से मुक्त हो जाता है ।जहाँ जन्म, मृत्यु , जरा और वृध्दि उसका स्पर्श नहीं करता , वहां केवल अव्यक्त , अचल ,ध्रुव्, अव्याकृत एव अमृतस्वरुप परब्रहम की ही स्थिति है । उस स्थिति में पहुँचे हुए मनुष्यों को शीत -उष्ण आदि
द्वंद्व बाधा नहीं पहुँचाते । मानसिक विकार और क्रिया द्वारा भी उन्हें कष्ट नहीं होता । वे समस्तभाव से युक्त, सबके प्रति मैत्री रखने वाले और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले होते है । इस प्रकार संपूर्ण प्राणियों के भीतर छिपा हुआ परमात्मा सबके जानने में नहीं आता । उसे तो सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवम श्रेष्ठ बुध्दि से देख पाता है ।
अत: ध्यान द्वारा मन को विषयों की और से हटाकर विवेक द्वारा उसे स्थिर करें और शांत भाव से स्थित को जाएँ । ऐसा करने से साधक परम पद को प्राप्त होता है । जो इन्द्रियों के वश में रहता है , वह मानव विवेक शक्ति को खो देता है और अपने काम आदि शत्रुओं के हाथ में देकर मृत्यु को प्राप्त है । इसलिये सब प्रकार के संकल्पों का नाश करके चित्त को सत्वयुक्त बुध्दि में स्थापित करें । ऐसा करने से चित्त में प्रसाद गुण आता है , जिससे यति पुरुष शुभ और अशुभ दोनों को जीत लेता है । प्रसन्नचित साधक परमात्मा में स्थित होकर अत्यंत आनंद का अनुभव करता है । चित्त की प्रसन्नता का लक्षण यह है कि सदा सुषुप्ति के समान सुख का अनुभव होता रहे,अथवा वायु शून्य स्थान में जलते हुए निष्कंप दीप की लो के समान मन कभी चंचल न हो ।जो मिताहारी और शुद्द चित्त होकर रात के पहले तथा पिछले भाग में आत्मा को परमात्मा के ध्यान में लगाता है , वही अपने अन्तकरण में परमात्मा का दर्शन करता है ।जबकि जिसका मन शांत नहीं है इन्द्रियां वश में नहीं है तथा जो तपस्वी नहीं है ,उसे इस ज्ञान का उपदेश नहीं करना चाहिए । जो वेद का ज्ञाता नहीं है ,जिसके मन में गुरु के प्रति भक्ति नहीं है, जो दोष देखने वाला, कुटिल, आज्ञा का पालन न करने वाला, व्यर्थ तर्क-वितर्क से दूषित और चुगलखोर है ,उसे भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिए । जो प्रशंसनीय ,शांत ,तपस्वी तथा सेवापरायण शिष्य हो उसी को इस गूढ़ धर्म का उपदेश देना उचित है ; दूसरे किसी को नहीं । तत्वेत्ताओं ने इस ज्ञान को ही श्रेष्ठ माना है । समाज मे कर्म तथा ज्ञान के अंतर व् परमात्मा के दर्शन को सही तरीके से समझना और पालन करना वर्तमान में आवश्यक है ताकि धर्म ज्ञान को समझा जा सके ।
संजय वर्मा " दृष्टि "
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