जा रे पंछी तू भी उड़ जा
खोल रहा हूँ पिंजरा
तेरे जाने से दुःख तो होगा
रहा जाऊँगा में फिर अकेला
जमीन से आकाश नापने की
उड़ान को में फिर से देखना चाहता हूँ
वृक्षों पर बैठे मित्रो के संग
तुम्हें चहचहाते सुनना चाहता हूँ
और ये भी समझना चाहता हूँ कि
मेरे लड़कों की तरह
क्या तुम भी वापस नहीं आओगे ?
जिन्हे पढ़ाया -लिखाया
पाला - पोसा था
वो मुझे छोड़ दूर जा बसे
अब मुझे सहारे की जरुरत है
क्योकि मै बूढ़ा हो चला हूँ
तुम से रिश्ता इसलिए बनाया था की
मन का सूनापन हो दूर
अकेला पन महसूस न हो
अपने अपनों को धरती पर पूछते नहीं
तो तुम्हे इसलिए पिंजरे से
मुक्त कर रहा हूँ
कम से कम
तुम तो अपनों में जाकर खुश रहो
खुले आकाश में
संजय वर्मा "दृष्टि "
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