Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पतंग

 
पतंग 

आकाश में उड़ती 
रंगबिरंगी पतंगे 
करती न कभी 
किसी से भेद भाव 
जब उड़ नहीं पाती 
किसी की पतंगे
देते मौन हवाओं को 
अकारण भरा दोष 
मायूस होकर 
बदल देते दूसरी पतंग 
भरोसा कहा रह गया
पतंग क्या चीज 
बस हवा के भरोसे 
जिंदगी हो इंसान की 
आकाश और जमींन के 
अंतराल को पतंग से 
अभिमान भरी निगाहों से
नापता इंसान 
और खेलता होड़ के
दाव पेज धागों से 
कटती डोर दुखता मन 
पतंग किससे कहे 
उलझे हुए 
जिंदगी के धागे सुलझने में 
उम्र बीत जाती 
निगाहे कमजोर हो जाती 
कटी पतंग
लेती फिर से इम्तहान
जो कट के 
आ जाती पास होंसला देने 
हवा और तुम से ही 
मै रहती जीवित 
उडाओं मुझे ?
मै पतंग हूँ उड़ना जानती 
तुम्हारे कापते हाथों से 
नई उमंग के साथ 
तुमने मुझे 
आशाओं की डोर से बाँध रखा 
दुनिया को उचाईयों का 
अंतर बताने उड़ रही हूँ 
खुले आकाश में
क्योकि एक पतंग जो हूँ 
जो कभी भी कट सकती 
तुम्हारे हौसला खोने पर।

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