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Dr. Srimati Tara Singh
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संजा पर्व

 

 

संजा पर्व मालवा , निमाड़ ,राजस्थान ,गुजरात के क्षेत्रों में कुंवारी कन्याए गोबर से दीवार पर सोलह दिनों तक विभिन्न कलाकृतियाँ बनाती है तथा उसे फूलों व् पत्तियों से श्रंगारित करती है वर्तमान में संजा का रूप फूल -पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है । संजा का पर्व आते ही लडकियां प्रसन्न हो जाती है । संजा को केसे मनाना है ये छोटी लड़कियों को बड़ी लड़कियां बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारते और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव ,लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह ,टी वी ,इंटरनेट का प्रभाव और पढाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म सा हो गया है । लेकिन गांवों /देहातो में पेड़ों की पत्तियाँ ,तरह तरह के फूल ,रंगीन कागज ,गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है । परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है इसलिए कहा भी गया है कि बेटी है तो कल है किसी ठीक ही रचा है"आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा /घणी याद आवे है गाँव की सजीली संजा /अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत -संजा /म्हारी पोरी के भी सिखऊँगी बनानी संजा /मीठा -मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा "। हम उम्र सहेलियों के साथ संजा गीत से गुलजार होती क्वार की शामों को और भी मनमोहक बना देती है । वहीँ छोटे भाई भी प्रसाद खाने की लालसा में संजा के गीत गुनगुना लेते है और बहनों के लिए संजा को दीवारों पर सजाने में उनकी मदद करते है । संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है ,पशु -पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजामाता को सजाना और किला कोट जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है ,उसमे पत्तियों ,फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है । लडकियाँ संजा के लोक गीत को गा कर संजा की आरती कर प्रसाद बाटती है ।" संजा तू थारा घर जा ,थारी माय मारेगी की कुटेगी ,चाँद गयो गुजरात। … "/संजा माता जिम ले। … /छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए जी में बैठी संजा बाई जाए। … /घाटी चढ़ी ने हऊँ हारी वो चंदा …. /आदि श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाती है ,उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है । संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवाहर में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है । संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम एस कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए ,वेसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है । कुल मिला कर संजा देती है कला ज्ञान ।

 


संजय वर्मा "दृष्टि '

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