स्पीकर की ध्वनि कम हो एवं लोक गीत संगीत का प्रयोग हो।
आजकल शादियों में महिला संगीत के नाम पर यह प्रदर्शन एक रस्म बन गया है। यह दिखावे वाली नई रस्म उनके दिल पर भारी पड़ रही है। तेज स्पीकर की ध्वनि के कारण हार्ट अटैक के कई मामले पहले भी सामने आ चुके हैं। अब विदिशा की परिणीता का मामला सामने है। ऐसे हादसों के लिए हम सभी दोषी हैं। तेज आवाज वाले स्पीकर पर प्रतिबंध भी है किंतु पालन कौन करें।कार्यक्रम के आयोजकों ने ही तो महिला संगीत को बढ़ावा दिया है।कई गैर समाज में बैठक कर डीजे,बेंड बाजों को शादी आदि के कार्यक्रम में नही रखा जाना तय किया यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसपर जुर्माना एवं विरोध किया जाने का मसला उठाया है। दिल की खातिर तेज आवाज वाले स्पीकर ना बजाए। घर में ढोल बजवा सकते हैं। पारंपरिक नृत्य के बजाए फिल्मी गीतों पर नृत्य का चलन बढ़ता ही जा रहा है।पारम्परिक लोक गीत विशेष पर्वों पर गायन का चलन कम होता जा रहा है।सीधे फिल्मी गाने बजाने का चलन हो गया।पहले के ज़माने में जिन्हें लोक गीत गाने आते हो उनको बुलावा दिया जाकर गीत गवाए जाते थे।जैसे राती जोगा,शादी,संजा,गणगौर,धार्मिक पर्वों, आदि पर।कई स्थानों पर शादी में महिला संगीत कार्यक्रम में, फिल्मी नृत्यों ने स्टेज पर जगह ले ली है। पारम्परिक लोकगीत जो गाए जाते और बताशे बाटे जाते थे।वो विलुप्त होते जा रहे है।इस कार्यक्रम में बुजुर्ग महिलाओं को मान सम्मान मिलता औऱ उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने औऱ नई पीढ़ी को सिखाने का मौका मिलता था।संक्रमणकाल के दौरान सभी शुभ कार्य में जाने पर सीमित संख्या निर्धारित की गई थी जो की उचित भी थी।संक्रमण काल कम हुआ है इसके साथ ही शुभ कार्य में सम्मिलित होने की संख्या में इजाफा हुआ है।अतः लोक गीतों की प्रथा को बनाए रखें ताकि लोकगीतों में शुभ कार्य सम्पन्न हो क्योंकि लोक गीतों में ईश्वर के प्रति प्रार्थना होती है। मधुर लोक गीतों की स्वर लहरियाँ घर घर में गुंजायमान होती है।गणगौर त्यौहार पर मालवी निमाड़ी लोक गीतों की स्वर लहरिया रात्रि में लोक गीत गाने के उपरांत तम्बोल(धानी ,चने आदि )प्रसाद के रूप में बाटें जाते है |वर्तमान में संजा का रूप फूल -पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है ।संजा का पर्व आते ही लड़कियां प्रसन्न हो जाती है।संजा को कैसे मनाना है और संजा माता के लोक गीत कैसे गाना है। ये बातें छोटी लड़कियों को बड़ी लड़कियां बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारते और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव ,लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह ,टी वी ,इंटरनेट का प्रभाव और पढाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म सा हो गया है ।लेकिन गांवों /देहातो में पेड़ों की पत्तियाँ ,तरह तरह के फूल ,रंगीन कागज ,गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है । परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है। "संजा -सोलही गीत को देखे तो -"काजल टिकी लेव भाई काजल टिकी लेव /काजल टिकी लई न म्हारी संजा बाई के देव ",संजा तू थारा घरे जा /थारी माँ मारेगा के कूटेगा "नानी सी गाड़ी लुढ़कती जाए "संजा बाई का सासरे जावंगा -जावंगा "संजा जीम ले "मालवी मीठास लिए और लोक परम्पराओं को समेटे लोक संस्कृति को विलुप्त होने से तो बचाती है साथ ही लोक कला के मायनो के दर्शन भी कराती है। संजा की बिदाई मानों ऐसा माहौल बनाती है जैसे बेटी की बिदाई हो रही हो सब की आँखों में आंसूं की धारा फूट पड़ती है |ये माहौल बेटियों को एक लगाव और अपनेपन का अहसास कराता है।बस ये बचपन की यादें सखियों के बड़े हो जाने और विवाह उपरांत बहुत याद् आती है।कही- कही अंग्रेजी एवं फ़िल्मी गीतों की तर्ज की झलक भी गीतों में समाहित होने से एक नयापन झलकता है।किन्तु असली लोकगीतों की बात ही कुछ और होती है।रिश्तों के ताने बाने बुनती व् हास्य रस को समेटे लोक गीत वाकई अपनी श्रेष्ठता को दर्शाते है।श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता बेटियाँ गाती है।उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है।महिला संगीत में लोक गीत लोक नृत्य का धीमे संगीत में उपयोग हो ताकि तेज स्पीकर से किसी की जान जानें से रोका जा सकें।
संजय वर्मा 'दृष्टि'
मनावर(धार)मप्र
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