गीति रचना :
बाद दीपावली के...
संजीव
*
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
कह रहे 'अंत भी एक प्रारम्भ है.
खेलकर अपनी पारी सचिन की तरह-
मैं सुखी हूँ, न कहिये उपालम्भ है.
कौन शाश्वत यहाँ?, क्या सनातन यहाँ?
आना-जाना प्रकृति का नियम मानिए.
लाये क्या?, जाए क्या? साथ किसके कभी
कौन जाता मुझे मीत बतलाइए?
ज्यों की त्यों क्यों रखूँ निज चदरिया कहें?
क्या बुरा तेल-कालिख अगर कुछ गहें?
श्वास सार्थक अगर कुछ उजाला दिया,
है निरर्थक न किंचित अगर तम पिया.
*
जानता-मानता कण ही संसार है,
सार किसमें नहीं?, कुछ न बेकार है.
वीतरागी मृदा - राग पानी मिले
बीज श्रम के पड़े, दीप बन, उग खिले.
ज्योत आशा की बाली गयी उम्र भर.
तब प्रफुल्लित उजाला सकी लख नज़र.
लग न पाये नज़र, सोच कर-ले नज़र
नोन-राई उतारे नज़र की नज़र.
दीप को झालरों की लगी है नज़र
दीप की हो सके ना गुजर, ना बसर.
जो भी जैसा यहाँ उसको स्वीकार कर
कर नमन मैं हुआ हूँ पुनः अग्रसर.
*
बाद दीपावली के सहेजो नहीं,
तोड़ फेंकों, दिए तब नये आयेंगे.
तुम विदा गर प्रभाकर को दोगे नहीं
चाँद-तारे कहो कैसे मुस्कायेंगे?
दे उजाला चला, जन्म सार्थक हुआ.
दुख मिटे सुख बढ़े, गर न खेलो जुआ.
मत प्रदूषण करो धूम्र-ध्वनि का, रुको-
वृक्ष हत्या करे अब न मानव मुआ.
तीर्थ पर जा, मनाओ हनीमून मत.
मुक्ति केदार प्रभु से मिलेगी 'सलिल'
पर तभी जब विरागी रहो राग में
और रागी नहीं हो विरागी मनस।
इसलिए हैं विकल मानवों के हिये।
चल न पाये समय पर रुके भी नहीं
अलविदा कह चले, हरने तम आयें फिर
बाद दीपावली के दिए जो बुझे.
*
संजीव ‘सलिल’
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