संजीव
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चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
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Sanjiv verma 'Salil'
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