हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं.
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कह रहे हमसे फफोले हाथ के
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं
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आबलों को शूल से शिकवा नहीं
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं.
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कलश महलों के न हमको चाहिए
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं.
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स्वेद गंगा में नहाते रोज ही
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है.
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संजीव ‘सलिल’
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