संजीव
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यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
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सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
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अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
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दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
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वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
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कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
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Sanjiv verma 'Salil'
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