घर की लड़ाइयां घाटे की होती हैं
घाटा जो हो ,आटे और बांटे का
परन्तु यदि ये लड़ाई
इस आटे या बांटे के घाटे की नहीं
तो पक्का मान लीजिए
फिर ये लड़ाई बड़े घाटे की होती हैं
जब लड़ता है पुरूष
चिल्लाता है, झल्लाता है
हाथ उठाता है, तो डरकर
महिला कर लेती है
अंदर से कमरा बन्द
कर लेती हैं कैद खुद को
और फिर एक रोज उसके मन से
गायब हो जाता है डर
वो हो जाती है विद्रोही
और करने लगती है फिर मन की
वो हो जाती है आजाद हर बंधन से
यही काम जब कोई स्त्री करती है
झल्लाती है, चीखती है
और करती है पुरूष के आत्मसम्मान पर चोट
तो निकल जाता है पुरुष घर से
भटकता है कई देर बाहर
और लौट आता है मन में विरक्ति के भाव लिए
एक लंबे अरसे के बाद
एक रोज वो निकल जाता है
घर से हमेशा को, सन्यास लेकर
हर बार स्त्री जीत जाती है
हार जाता है पुरुष
या तो स्त्री के विद्रोही होने पर
या फिर पुरूष का छोड़ना अपना घर
इसलिए जो घाटे हैं
आटे औऱ बांटे के ,
उन्हें आपस में बांट न सकें
तो भी चलता है
मगर जो घाटे इनसे इतर हैं
मनों के हैं, तो एक बार संभलिए
न स्त्री को विद्रोही होने दे
न पुरुष को सन्यासी
नहीं तो जो घाटे हैं
वो कभी न बांटे जा सकेंगे
संजय नायक "शिल्प"
8619593017
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