क्रांति की दहलीज़ पर खड़े
सोच रहे आज,
कमजोरी का प्रतिक न बन जाये
सर पर रखा हमारा ताज़।
भावुक हो जाते हैं हम
विरासत को संभाले।
आत्म-स्तुति कर
महान कहलाते हम।
विविध रंगों से चुनकर
अधीन करना चाहें,
विश्वव्यापी कालखण्ड
में खुद को परखते।
तर्कसम्मत बातें
अपराजेय की कल्पना
मन में संजोये परिपक्व
बन जाता जब "मैं"अहम,
सुकून की तमाम वजय
को तलाशता सशक्त
आदर्श मूल्यों
को अपनाता आशंकित
होता मन!
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संतोष भावरकर "नीर"
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