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रंगराज

 

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संतोष सिंह क्षात्र 

Attachments9:32 AM (9 hours ago)




to me 








चले आये दबे पाँव

होके गेहूँ के गाँव। 

निहार हुलसाई है धरा

सरसों लागे प्यारी अप्सरा।। 


द्वारे खड़ी कलियाँ ले शगुन

सजन बन आ गये फागुन।

पछुआ झिंझोरे जब बार बार

मंजरियाँ करें अठखेलीया हजार।। 


डाली डाली कोकिल सुनाये गीत

भ्रमर तितली हो नाचे बन मीत। 

ढाक के ओट से वसंत मुस्काये

निहाल स्वागत से रंगराज हरषाये।। 


रस फागुन में डुबी ब्रज भूमि

प्रसन्न द्वारिका हो मगन झूमी। 

घर घर टोली में पहुंचे ग्वाले

खेले लाल गुलाबी रंग काले।।


हरित चदरिया धरा ओढ़ खेलै होरी

ग्वाले संग करैं छिझोरी बरसाने की गोरी।

राग-द्वेष भूल-भूलाय बने सब हुड़दंगी

बेसुध बरस प्रेम बदरिया कर गई बंहुरंगी।। 


क्षात्र_लेखनी_





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