धूसरित वसुधा के नम नयन निहार
घनश्याम जेठ से लड़ने लगे।
सागर से लेकर जल उधार
चीखती दरार तुरत भरने लगे।।
गरज-हरष फिर झूम-झाम,
चपला संग अठखेलियाँ करने लगी।
मयूर नृत्य सजते ही, बावरी
बदरिया निर्भय बरसने लगी।।
घूमरि-घूमरि घन चहूँदिश
झरझर अश्श्रू बरसाने लगे।
व्याकुल जन-जंगल मुस्काये,
धरा से लिपट पशु, हरषाने लगे।।
घनघोर घटा घेर खड़ी,
सहज धरा मुस्काने लगी।
विचलित पवन की धुन-सुन-गुन
नन्हीं कोयलिया सुर सजाने लगी।।
संग सखियों के भींगे प्रियसी
सावन को गुनगुनाने लगी।
झूले की ऊँची पेंग लगा
पुरवाई को गले लगाने लगी।।
निडर निश्छल शिव प्रीत में डूबे
कजरी स्वर चहूँओर गुँजे।
अटूट कतार चली कांवरियों की
हर हर के जयघोष ऊँचे।।
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#क्षात्र_लेखनी @SantoshKshatra
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