लू के यौवन थपेड़ों से
फुनगी-पत्ते पेड़ों से,
रूदन-आह के स्वर छलके
नभ से लिपटे घन-घनेरों से।।
झलमल जेठ दूपहरी ओढ़े
गंगा के तीरों से,
पूछो पीड़ा होती है कैसी?
बालू टीलों से-जल के वीरों से।।
अग्नि सी तमतमाती-सुलगती
दूपहरी के निर्दय जंजीरों से,
आंसू जल धारा बहती
धरतीपुत्र के नयनों और शरीरों से।।
झुलसे खेत खलिहान अंकुर
बेलों से, फूलों से,
हृदय वेदना उभर चूकी है
सूखते तालाबों, ट्यूबवेलों से।।
चिटकते हृदय से दर्द उभरता
निहार दिनकर के भावों से,
सोचो जल जंगल भरा होता
प्रकृति मुस्कान छिटकती गांवों से।।
प्यासे रूखे अधरों संग
भटकते क्यों व्याकुल चारवाहों से,
यदि प्रेम को तुम प्रेम समझते
न झुलसते पांवों से,छांवो से ।।
#क्षात्र_लेखनी© @SantoshSingh
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