Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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'क से कबूतर- - -'

 
'क से कबूतर- - -'

       कबूतर एक ऐसा पक्षी है जिसके नाम से तभी परिचय हो जाता है, जब हम हिन्दी की वर्णमाला सीखना प्रारम्भ करते है,क से कबूतर, ख से खरगोश -  -  -। 
       मेरा परिचय भी हमारे देश के इस अति साधारण पक्षी से विद्यारंभ के ही समय हो गया ,परंतु जैसे-जैसे आयु बढ़ी ,इससे परिचय भी प्रगाढ़ होता गया।स्वर सीखने के बाद जब व्यंजन सीखना शुरू किया तो पुस्तक में पृष्ठ  ऊर्ध्वाकार में तीन भागों में विभाजित था, प्रत्येक वर्ण को बीच के भाग में गोलाकार में छापा गया था और दोनों और दो चित्रों के माध्यम से उच्चारण और लिपि का संबंध स्थापित किया गया था, सो क से कमल ,क से कबूतर ,से यह शिक्षा आरंभ हुई।
       कमल तो रोज  दिखलाई पड़ने वाला फूल  होता नहीं ,पर कबूतर संभवतः पूरे भारतवर्ष में ,पूरे वर्ष दिखलाई पड़ने वाला पक्षी है ।तो क  की लिपि के साथ ही जिस कबूतर से परिचय हुआ  था ,उसमें आज तक निरंतर गहराई आती ही जा रही है। 
   लगभग इसी आयु में, जब हिंदी का शब्द -भंडार समृद्ध किया जाने लगा, तो 'गाय रंभाती है' 'गधा रेंकता है 'के साथ 'कबूतर गुटरगूँ करता है' भी सीखा । आगे की कक्षाओं में आने पर भारत के सामान्य पक्षियों के बारे में पढ़ते हुए कबूतर के आहार और निवास आदि के बारे में भी पढ़ लिया। पुस्तक में लिखा था, 'कबूतर सलेटी और सफ़ेद दो रंगों में पाया जाता है यह छोटे बीज और अन्न -घास के दाने खाता है, पुराने, टूटे  खंडहरों और उजाड़ मकानों में रहता है,यह पक्षी घोंसले नहीं बनाता'। यह पुस्तकीय ज्ञान तब सरासर गलत लगता है, जब आए दिन बालकनी में दिनदहाड़े कबूतरों के जोड़े एक दूसरे को लुभाते, गुटरगूँ करते ,पंख फुलाकर नृत्य  करते दिखाई देते हैं ,कई पर्यटक स्थलों पर तो इनके सैकड़ों के झुंड भी दिखाई पड़ते हैं और इनको खिलाने के लिया ज्वार- बाजरा बेचते लोग भी।
     गरदन को पंजों की चाल की ताल पर हिलाता हुआ गुटरगूँ करता हुआ बड़ी शान से चलता है,और चाल गर्वीली लगती है।परन्तु कबूतर की गुटरगूँ  मुझे कभी प्रिय नहीं लगी। छात्र जीवन में एक बार किसी विषय की परीक्षा के समय ,परीक्षा भवन के रोशनदान में दो कबूतर आ बैठे ।उन्होंने अपनी मनहूस, करुण गुटरगूँ से पूरे हॉल को ऐसा गुंजाया कि सभी परीक्षार्थी, ध्यान भंग होने के कारण परेशान हो गए ।यहां तक कि एक कर्मचारी द्वारा सीढ़ी पर चढ़कर, डंडे की सहायता से जब उनको वहां से उड़ाया गया तब जाकर परीक्षार्थी शांत हुए और परीक्षा दे पाए।
       चरित्र निर्माण के लिए जब पौराणिक और पंचतंत्र की कथाओं को माता-पिता पढ़ाते थे ,तब वहां भी इस ,,क से कबूतर' के चर्चे पढ़े। राजा शिवि की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए अग्निदेव ने इसी कबूतर का रूप धारण किया और एक कबूतर के भार के बराबर अपना मांस काटकर तराजू में तोल ने लगे थे।पंचतंत्र की कथाओं में विष्णु शर्मा ने 'एकता में बल है' के लिए 'चित्रग्रीव' नामक कबूतर का सहारा लिया, जिस के निर्देश पर कबूतरों का झुंड बहेलिए का जाल लेकर एक साथ उड़ गया था।
  कबूतर के नाम से फिल्मी दुनिया भी अछूती नहीं रही। इस  तार - टेलीफोन के  आधुनिक युग में भी कभी यह किशोरी नायिका की पहले प्यार की पहली चिट्ठी लेकर साजन को पहुंचाने  का कार्य करता है ,तो कभी निठल्ले ,फैशन परस्त युवाओं की पहचान बन जाता है ,।'"ये आजकल के लड़के, पढ़ते ना लिखते हैं ,पर फैशन इनके देखो बेपर के उड़ते हैं ,अरे ये बाल इनके देखो ये चाल इनकी देखो -कबूतर -कबूतर" इस तरह की उपमा का कारण मुझे कभी समझ में नहीं आया, यह बेचारा उदास से सलेटी रंग का, करुण और कर्णकटु बेसुरे गले से गुटरगूँ करनेवाला पक्षी न तो मोर जैसा सजीला और  फैशन परस्त है, न ही बेपर के  उड़ ही सकता है।   इसके नाम का सहारा लेकर द्विअर्थी भाव  का  गीत  "चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे " भी लिखा जाता है परन्तु क्यों ?इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा !

जब मैं   बच्ची थी, तब देश के प्रधानमंत्री नेहरू जी थे ,जो हम बच्चों के 'चाचा' कहलाते थे। उनका जन्मदिन चौदह नवंबर, 'बाल दिवस' के रूप में आज तक मनाया जाता है ।वह अपने जन्मदिन पर अपनी आयु के वर्षों की संख्या के बराबर सफेद कबूतर हवा में उड़ाते थे। सफेद कबूतर शांति का प्रतीक माना जाता है ।उस समय मेरे बाल मन में यह विचार आता था कि वे कबूतर जो संख्या में सत्तर के आसपास होते थे कहां पाए जाते होंगे?सफ़ेद  कबूतर तो हर जगह दिखलाई भी नहीं पड़ते।कहां से पकड़ कर लाए जाते होंगे ये शान्ति के दूत? उन्हें उड़ाने से पहले जरूर पिंजरे में बंद करके रखा जाता होगा। शांति के प्रतीक को बंधन में रखना और फिर उड़ाना मेरे बाल मन की समझ के बाहर की बात थी!!
'क से कबूतर' के बारे में उम्र के साथ जानकारी बढ़ती जारही थी। अधिकांश पशु पक्षियों का एक विशेष प्रजनन काल होता है ।परंतु इस कपोत पक्षी का कोई विशेष प्रजनन काल नहीं है। साल के बारह महीने ये आपको नाचते और तरह-तरह की कलाएं दिखा कर अपने साथी को लुभाते हुए  मिल जाएंगे। शायद यही कारण हो कि ऐसा माना जाता है कि इनका गोश्त यौनशक्ति को बढ़ाता है ,इसमें सच्चाई कितनी है यह तो कोई अनुभवी व्यक्ति ही बता सकेगा , हाँ मनुष्यों की आबादी में रहने वाली बिल्लियों का यह प्रिय भोजन अवश्य है। जहां कबूतर रहते हो ,वहां आपको बिल्ली घात लगाती कभी न कभी अवश्य दिखलाई पड़ जाएगी।
शौकीन रइसों के बारे में पढ़ा-सुना था कि कुछ लोग तीतर-बटेर पालते हैं। उन्हें लड़ने- भिड़ने के दांव पर सिखाते हैं और उनके लिए कुछ हथियार भी बनवा कर ,उन्हें लड़ाते हैं। इनकी लड़ाई पर कभी -कभार जान तक की बाजी लग जाती है। कबूतर भी लगभग उसी कुल का पक्षी है। जब मैंने 'कबूतर बाजी' शब्द सुना तो मुझे लगा यह भी 'बटेर -बाजी' के जैसा रईसों का कोई शौक होगा ।परंतु बाद में जब सच्चाई सामने आई तो पता लगा कि गैरकानूनी ढंग से दूसरे देशों में लोगों को ले जाकर बसा देना 'कबूतरबाजी' कहलाता है। इस शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई यदि किसी को मालूम हो तो मुझे भी बताएगा।
           कबूतर के नाम से बने एक नए शब्द  से तब हुआ जब पहली बार मेरी सासु माँ  हमारे पास मुंबई आईं।यहाँ की ऊँची इमारतों के फ्लैटों की खिड़कियों को देख कर वे बोलीं, "वाह रे शहर ,यहाँ इस कबूतरखाने में इंसान रहते हैं !"उस समय तो जैसाकि स्वाभाविक था 'कबूतर खा़ना' का अर्थ कबूतर के रहने के स्थान से ही समझा। परन्तु अभी जब कुछ वर्ष पहले विश्व प्रसिद्ध, संसार के आश्चर्यों में एक,पिरामिडों को देखने के लिए मिस्र जाना हुआ तो वास्तविक 'कबूतर खाने' से मेरा परिचय हुआ । नील नदी के
 उपजाऊ क्षेत्र में सड़क से यात्रा करते हुए हरे -भरे खेतों के बीच कुछ-कुछ किलोमीटर के अंतराल पर चौकोर झरोखों वाले गुम्बदनुमा आकार दिखाई पड़े ,जो केवल खंभों पर टिकाए गए थे। जब कई ऐसे आकर देख लिए तो उत्सुकता को दबा न सकी और अपने गाइड से इन संरचनाओं के बारे में पूछ ही लिया ।उन्होंने बताया कि ये 'कबूतर खाने 'हैं।अमीर लोग खेतों के बीच इन्हें बनवा देते हैं और इनमें कबूतर रैन- बसेरा करते हैं। उनकी बीट नीचे इकट्ठा होती रहती हैं जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए बेहतरीन खाद होती है।  
तो इस तरह 'कबूतर खाने' का एक नया ही अर्थ मुझे मालूम हुआ।आर्गेनिक  खाद बनाने वाले ये नायाब कारखाने थे। 
  अचानक ख़्याल आता है कि एक तरफ़ तो मिस्र में लोग कबूतर खाने बनवाते हैं और कहां हम यहां दिल्ली वाले अपनी बालकनी, खिड़कियों  पर ,कबूतर का आतंक रोकने के लिए, 'कबूतर जाली' या 'पिजन स्क्रीन' लगाते हैं ।जब से इस कबूतर जाली का 'आविष्कार' हुआ है तबसे इन कबूतरों के आतंक से कुछ राहत मिली है ,वरना बालकनी की रेलिंग ऐ.सी. के कम्प्रेसर, बाहर रखे गमलों आदि  सब पर ये कबूतर बैठकर दिन भर गुटरगूँ करते, बीट की दुर्गंध फैलाते और मौसम - बेमौसम दो -चार  सूखी टहनी या फिर झाड़ू की सींकें रख, उस पर अंडे देकर जिंदगी मुश्किल कर रहे थे। ढीठ इतने कि इन्हें उड़ा कर आप पीछे मुड़े और यह फिर आकर उसी स्थान पर बैठकर आपको चिढ़ाते हुए से गुटरगूँ करने लगते हैं।                    समाचार पत्रों और व्हाट्सऐप पर मनुष्य के श्वसनतंत्र पर पड़ने वाले इनकी बीट और पंखों के दुष्प्रभावों को पढ़ -पढ़ कर मन और आतंकित होता रहता था। अब जब कबूतर जाली के पार से इन्हें झुंड में एक साथ सहसा आकाश में उड़ते और फिर कुछ ही पलों में वापस आकर बैठते  देखती हूंँ  तो प्रसिद्ध मुहावरा ,'फ़्लाइटऑफ पिजन्स,  याद आता है और मन प्रसन्न हो जाता है।
     इस तरह इस 'क से कबूतर' नामक पक्षी के नित नूतन आयामों से परिचय प्रगाढ़ होता जा रहा है।क्या आप मेरी इस जानकारी में वृद्धि करना चाहेंगे? आपका स्वागत है!!


सरोजिनी पाण्डेय्


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