मां की गंध
आज के वैज्ञानिक यह दावा करते हैं;
हम यादों को दृश्यों से अधिक
गंधों से जोड़ते हैं,
मुझको यह बात एकदम सच्ची लगती है
कई गंधें मुझे मेरे बचपन से जोड़ती हैं,
जब भी मुझे अपनी मां की याद आती है
न जाने कैसे मेरे नथुनों में
एक विचित्र गंध भर जाती है
वह गंध ,एक गंध नहीं होती
अनेक गंधों का मिलाजुला 'कॉकटेल' होती है
उसकी साड़ी से आती सनलाइट साबुन की गन्ध,
मुंह में घुलते पान से,कभी इलायची -सौंफ तो
कभी 'तितली छाप जाफरानी जर्दे' की सुगंध
रसोई बनाकर निकली मां से
कभी हींग ,कभी मीठे पकवानों की गंध आती थी
और इन महकों से मुख में लार भी आ जाती थी,
सद्यस्नता मां के तन से कभी 'लक्स'
तो कभी 'रेक्सोना' की सुवास आती थी
सर्दियों में सरसों के तेल से मिली हुई होती थी,
कभी कभी ऐसा कोई पास से गुज़र जाता है
जिसकी गंध पा ,मुझे सिर पर मां के हाथ का स्पर्श याद आता है,
धुले बालों में जब माँ आंवले का तेल लगाती थी,
उस समय उस स्पर्श से ऐसी ही गंध तो आती थी!!
चोटी बनवाते समय यदि सिर अधिक हिलाऊँ तो
एकाध चपत मैं खोपड़ी पर पाजाती थी
दीपावली की रात को सरसों के तेल से बनते काजल ,
होली की शाम को नए कपड़ों पर ख़स के इत्र की सुगंध
पूजा में जलते घृत -दीपक की सुवास
नए धुलवाये गये फर्श से उठती फिनायल की तीखी बास
उन दिनों के दैनिक जीवन की ये ही गंधें-सुगंधें
न जाने कैसे कोमल सुगंधित यादें बन जाती हैं
यदाकदा नासिका में बनकर इक अनुभव
मेरी आँखों को ये नम तक कर जाती हैं।।
सरोजिनी पाण्डेय.
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