मेरा शहर बनारस
करोना काल के कारावास के बाद कृष्ण जन्माष्टमी मनाने के लिए 'अपने शहर' वाराणसी (काशी )आना हुआ। यह वाराणसी मेरी 'ससुराल' है ।इस शहर से मेरा नाता पांच दशकों से भी अधिक का है ।विवाह से पूर्व स्नातक शिक्षा के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आई थी और परिसर में खिले अमलतास और गुलमोहर के पीले- लाल फूलों से लदे वृक्ष ,हर मार्ग के किनारे लगे देख कर एक विचित्र भाव से मन भर गया था ।जिसमें आह्लाद,उत्साह आनंद और उत्सुकता सभी कुछ था !यह काशी से मेरा प्रथम परिचय था। तब नहीं जानती थी कि यह शहर 'मेरा शहर' हो जाएगा!
पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में मेरा ननिहाल है ,जहां मेरा जन्म हुआ ।पिता का पैतृक स्थान भी उसी जिले का एक गांव था। जिले का नाम इसलिए नहीं लिख पा रही हूंँ कि मुझे स्वयं अपने ऊपर ही यह विश्वास नहीं है कि मैं इस समय का उनका सही नाम बता पाऊंगी! प्रशासनिक सुविधा के लिए जिलों के नाम और आकार कई बार बदल चुके हैं ।अब पत्र लिखना भी नहीं होता (व्हाट्सएप और ई-मेल के कारण) कि गांव ,मौजा, डाकघर और जिला हमेशा याद रखना पड़े !
तो बात मैंने आरंभ की थी बनारस को 'मेरा शहर' कहने से ,बात आगे बढ़ाती हूंँ, पिता प्रदेश प्रशासन में अधिकारी थे, अतः हर दो-तीन साल में स्थानांतरण हो जाता था, घर- स्कूल सब बदल जाता ।साल में एक बार जब हम गांव (पैतृक अथवा ननिहाल) जाते तो सब के मुंह से अपने लिए "सहरैती" बिटिया का संबोधन ही सुनती थी मैं।मन में यही घर कर गया कि मैं तो 'शहर की बेटी' हूं पर किस शहर की? आजमगढ़ ,बहराइच ,टिहरी गढ़वाल ?या फिर कोई भी एक बेनाम शहर?मेरे बाल मन को यह भटकाव दुखी कर जाता था।
किशोरावस्था के अंतिम चरण में ही विवाह हो गया और भारतीय संस्कारों के अनुसार मेरी ससुराल ही 'मेरा घर' हो गया और वह शहर था 'बनारस'! जिसके प्रति मैं विवाह के पूर्व ही आकर्षित हो चुकी थी। चाहे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ नहीं पाई परंतु उस प्रथम परिचय के समय की दृश्यावलि और लंका पर पी गई लस्सी का स्वाद मेरे हृदय में धरोहर की तरह आज भी संचित हैं।
बनारस में मेरा निवास कभी नहीं रहा। परंतु वर्ष में कम से कम एक बार तो आना होता ही रहा। जब भी यहां आती तो 'कहीं और रहने वाली' नहीं बल्कि 'बहूरानी आई है' का परिचय ही मेरा होता। मुझे यह सुनकर सदैव ही तृप्ति होती और लगता कि अब मैं ,जो अब तक एक पौध थी, विकसित होने, फलने- फूलने के लिए एक स्थान पर रोप दी गई हूँ और अब यह 'मेरा शहर' है । कितना सुखद सुरक्षित होता है एक स्थान से जुड़ पाना! क्या सभी को ऐसा ही लगता है? या मैं ही कुछ अलग सी हूँ?
यह शहर 'मेरा' बनने के बाद कितना बदला है इस ओर कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया था। ऐसा तो हो नहीं सकता कि यह बदलाव रातों-रात आया हो? फिर क्यों नहीं कभी मैंने इसे देखा? सोचा? जाना? इस बार जब यहां आए हूँ तो इस परिवर्तन का अनुभव कर रही हूँ ,!ऐसा क्यों? सोचती हूंँ कि करोना के विपदकाल ने शायद जिंदगी को और शिद्दत से जीने का जज्बा हमें दिया है। इस विपदा ने हमें इतना असुरक्षित बना दिया कि हर छोटी- बड़ी खुशी को हम कस कर पकड़ लेना चाहते हैं। हर छोटे बड़े परिवर्तन को जी भर कर जी लेना चाहते हैं ।जिसको जी सकते हो उसे ढूंढ- ढूंढ कर इसे जी लो जीवन का हर क्षण घूंट घूंट कर पी लो !सब कुछ सचमुच क्षणभंगुर है ,कब क्या हो जाए कुछ पता नहीं ? शायद इसीलिए मैं अपनी नई मिली आंखों से अपने इस शहर को बदला हुआ देख रही हूंँ ?कुछ निर्मित कुछ निर्माणाधीन ओवर ब्रिज और उनके स्तंभों पर लोक जीवन को दर्शाते सुंदर चित्र !कुछ वर्षों पहले जिन दीवारों पर केवल पान की पीक से निर्मित 'चित्र' दिखलाई पड़ते थे ,वहां इतनी सुंदर कृतियां ?सोचती हूंँ क्या यह स्वास्थ्य के प्रति आई जागरूकता है ?अथवा अन्य कुछ?
सचमुच कितना बदला है 'मेरा शहर'! जहां सड़कों पर केवल साइकिल ,रिक्शे भरे रहते थे, आपस में टकराते हुए, घंटी बजाते हुए, अब वहां कारों और ई-रिक्शा का बाहुल्य है। रिक्शे पर से गिर कर मैं एक बार हाथ और एक बार पैर तुड़वा चुकी हूंँ,उस रिक्शों की भीड़ की बहुत याद आरही है। 'गोदौलिया' जो बनारस का सबसे अधिक भीड़भाड़ वाला और जनप्रिय चौराहा है ,वहां की दुकानों पर एक रंग और एक समान लिपि के लगे हुए साइन बोर्ड ,वाह!
एक बड़ा बदलाव जो मुझे दिखाई दिया वह था ,मेरी प्रिय दुकान 'बसंत बहार' का साइन बोर्ड ,जहां की लस्सी सारे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। वहां के व्यंजनों की सूची में बोर्ड पर सबसे ऊपर नाम था डोसा -इडली, चिल्ली- पनीर और कहीं एक कोने में दुबका हुआ -सा 'लस्सी' का नाम !पहली झलक में तो मेरा मन भर आया ,पर अगले ही क्षण भारत की एकता और अखंडता का विचार कर मन प्रसन्न हो गया ।'मेरे शहर' का यह बदलाव परिवर्तन की अनश्वरता है या कुछ और ?शहर बदला तो इसमें बड़ी बात क्या है ?मैं भी बदली हूंँ, मेरी नजरें भी बदली हैं। ईश्वर करे यह बदलाव सबके लिए सुखद और कल्याणकारी हो!!
सरोजिनी पांडेय्
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