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नाग पंचमी का त्यौहार

 

  नाग पंचमी का त्यौहार

भारतीय परंपरा के अनुसार वर्षा ऋतु में आने वाला श्रावण या सावन का महीना शिव को अर्पित है। मुख्य रूप से वर्षा के जल पर निर्भर कृषि -प्रधान देश में वर्षा काल को ईश्वरीय समय मानना स्वाभाविक लगता है ।इस माह में कई व्रत -त्योहार मनाए जाते हैं ,जैसे -हरियाली तीज ,नाग -पंचमी ,सावन के सोमवार ,रक्षाबंधन आदि।

इनमें जो पर्व उपहारों को महत्व देते हैं उनका प्रचार-प्रसार पूरे देश में और यहां तक कि विदेशों में बसे भारतीयों के बीच भी हो गया है ।शायद इसका कारण समाज में 'बाजार' की प्रभुता का हो। जो त्यौहार केवल परंपरा और क्रियाओं को महत्व देते हैं ,वे मात्र 'आंचलिक' होकर रह गए हैं। संभवतः 'बाजार' की चकाचौंध के कारण उनका महत्व भी घटता ही जा रहा है ।जहां हरियाली तीज ,जिसमें बेटी- बहू को उपहार दिए जाते हैं ,का प्रसार दूर-दूर तक है ,वहीं इसके दो दिन बाद मनाए जाने वाले त्योहार, नाग -पंचमी, के बारे में लोगों की जानकारी अधिक नहीं है ।

मैं जब भारत के उत्तर -पूर्वी भाग में पल- बढ़ रही थी, उस काल की नाग पंचमी की यादें मुझे बड़ी प्रिय हैं ।नाग पंचमी को कुछ क्षेत्रों में 'गुड़ियां' भी कहा जाता है ।

तो -नाग पंचमी को प्रातः काल ही घर का कोई वयोवृद्ध व्यक्ति ,नहा -धो ,शुद्ध वस्त्र धारण कर दूध का बर्तन ले, घर से निकल जाता और खेतों में ,बागों -बागीचों के आसपास कोई बांबी ढूंढ कर उसमें दूध डाल आता था ।माना यह जाता कि सांप को दूध पिलाया गया है ।सांप चूहों का भोजन कर, खेती की रक्षा करता है अन्न बचाता है, अतः उसे दूध पिलाना कृतज्ञता ज्ञापन ही है ।

मां रसोई के द्वार पर चौखट के दोनों ओर काजल और सिंदूर के नाग नागिन उकेरतीं,पूरे वर्ष नाग देवता की कृपा पाने के लिये! उनके भोग के लिए पूरी ,खीर ,अरबी की तरकारी बनती थी,जिसकी खुशबू से सारा घर भर जाता क्योंकि उन दिनों रसोई घर में चूल्हे के ऊपर एग्ज़ास्ट फैन का रिवाज न था ।हवा के नम और भारी होने के कारण घी सुगंध बड़े लंबे समय तक घर के अंदर रहती और हम बिना भोजन किए भी उस सुस्वादु भोजन के कल्पित आनंद में डूबते -उतराते रहते। अरबी की सब्जी का तर्क यह होता कि नाग देवता धरती के अंदर रहते हैं ,इसलिए उन्हें जमीन के अंदर उगने वाली चीजें अधिक प्रिय होती होंगी ।इन तर्कों का कोई वैज्ञानिक कारण हो ना हो परंतु उस आयु में सब कुछ विश्वसनीय लगता ।

नाग पंचमी का त्यौहार मनाने के लिए घर की हर बेटी के लिए पुराने कपड़ों से गुड़िया बनाई जाती ,प्रत्येक के लिए कम से कम पांच गुड़ियां! बांस की अथवा मूँज की बनी रंग बिरंगी टोकरियों में ये गुड़ियां रखी जाती ।मां जब गुड़िया बना रही होती तो वह भी बड़ा आकर्षक लगता । मैं चुपचाप घंटों बैठकर उनकी व्यस्तता और सधे हाथों का कमाल देखती रहती। सफेद महीन कपड़े को मोटी बत्ती के आकार या फिर चरखे में काती जाने वाली पूनी के जैसा बना, उसके बीचो-बीच काला धागा लपेट कर (जो पुराने परांदे या चुटीले से लिया गया होता) गुड़िया के बाल बन जाते ।लाल तागा पिरो कर उससे सिंदूर भरी मांग बन जाती ,काजल से आंखें और लाल-आलते से बिंदिया और मुस्कुराते हुए होंठ बनातीं। कपड़े की पतली बत्तियों से गुड़िया की बांहें बना ,उसकी कलाइयों में लाल हरे डोरे से चूड़ियां पहना देतीं। और फिर अंत में कमर में साड़ी लिपटा उसे पूरा कर देतीं। एक दिन में कई-कई गुड़िया बनतीं।

नाग पंचमी की पहली रात में चने भिगो दिए जाते और अगले दिन उसकी घुघनी बनती। बांस की डंडियों को रंग कर, कभी रंगीन रिबन या कपड़े की पट्टी भी लपेट कर सुंदर बनाया जाता। हर लड़के(भाई) को छड़ी मिलती।

सुबह-सुबह उचित स्थान देखकर झूला डाला जाता और सबसे पहले उस पर नाग नागिन ,उसके बाद देवी -देवताओं का नाम लेकर झूले को पींगें दी जातीं। इतना सब हो जाने के बाद बारी आती किसी व्यक्ति के झूले पर बैठने की!

सावन की उमस भरी गर्मी में झूले पर झूलना स्वर्गीय सुख देता ।मां मीठे स्वर में कजरी गातीं– "झूला पड़ा कदम की डाली -झूले राधा प्यारी नाय s s s।"

संध्या समय हम सब लड़कियां सज -धज कर टोकरियों में अपनी गुड़ियां और चने की घुघनी का कटोरा लेकर घर से निकलतीं। भाई लोग भी सजे- धजे ,हाथों में रंगीन छड़ियाँ लिए साथ होते।किसी तालाब के किनारे मेला लगता, जिसे 'गुड़ियाँ का मेला' कहते । ताल के किनारे लड़कियां हंसती -खिलखिलाती ,गाना गाती अपनी गुड़िया नीचे फेंकती जातीं और भाई लोग उसे अपनी छड़ियों से पीटते। गुड़िया पिट जाने पर सब लोग मिलजुल कर घुघनी खाते-खिलाते। मेले से मिठाई खरीदते और घर वापस आते ।

इस तरह नाग पंचमी का त्यौहार सम्पन्न होता।

अब इस तरह परंपरागत तरीके से नाग पंचमी का त्यौहार मनाया जाना लगभग लुप्त हो गया है ।इस समानता के नारे के युग में गुड़ियों का पीटा जाना पितृसत्तात्मक समाज की मनमानी का रूप लगता है ,परंतु उस उम्र में यह अति आकर्षक त्यौहार लगता था ।

त्योहारों का आनंद लेने के लिए कभी-कभी तर्क बुद्धि को ताक पर भी रख देना चाहिए, है न!!

          सरोजिनी पाण्डेय



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