Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मोज़ों की मरम्मत करती नानी

 

मोज़ों   की  मरम्मत  करती नानी

जाड़े का मौसम जब तेजी पर आता है ,
मेरे पैरों में मोटे- मोटे मोज़े पहनाता है
और ये मोज़े बड़े शरारती से होते हैं
जब देखो तब, ये मरम्मत के भूखे होते है!

दो टांके लगाने को सुई धागा उठाती हूंँ ,
बाएं हाथ की अंगुली -अंगूठेके बीच सुई,
और दाएं हाथ में धागे के छोर को दबाती हूँ,

माथे पर चढ़े हुए चश्मे कोनीचे उतार
आंखों के ऊपर उनको बैठ आती हूँ
सुई का छेदा फिर भी नहीं दिखता
इसलिए दिनदहाड़े भी बिजली का बल्ब जलाती हूँ,
धागा कहां जाएगा फिर भी नहीं सूझता
इसलिए सुई को चुटकी में घुमाती फिराती हूँ
कभी सुई के छोटे छेद, कभी धागे के
रेशों पर, थोड़ा झुंझलाती - थोड़ा गुस्साती हूँ
दरवाजे पर लगी जाली भी रोशनी को रोकती है
उस पर भी अपना क्रोध बड़बड़ा कर उतारती हूँ ,
कई बार की कोशिश के बाद
धागे को कभी काट कभी मरोड़ कर
अपनी विजय पताका सुई के पार लहराती हूँ
मोज़े में टांके लगाते हुए यह ख्याल आता है ,
बढ़ती उम्र का हिसाब मन क्यों रोज भूल जाता है ?
सृष्टि में हर प्राणी की एक ही कहानी है जन्म- जोबन - जरा तो हर जीव ही पर आनी है

नानी -दादी की यही तो पहचान है,
सुई में धागा डालना क्या इतना आसान है?!????? सरोजिनी पाण्

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