Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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घनघोर घटा से बादल काले

 

घनघोर घटा से बादल काले,
मस्त लगे और कितने प्यारे
देख के बादल काले काले।
कड़ कड़ कड़ कड़ बिजली चमके,
और घूमते कैसे यह मतवाले?
धुँआ धुँआ सा छाया कैसे?
आग लगी हो मानो जैसे।
सूरज राजा छिपे अब डरे डरे,
उसे देख खग भी टहले,
वे बच्चों को घोंसले में लगे बैठाने।
चेतक उन्हें देख अपने मुख को,
ऊपर करके लगा फैलाने।
मयूर भी नाच उठे देखो हैं,
देख के बादल काले काले।

 


बरसने लगे ऐसे जैसे,
फूट पड़े हो अंगारे।
धुँध छा चला है ऐसे ,
डेरा डारे जैसे रात्रि रे।
मानव चित्त था व्याकुल,
वह थर थर लगा काँपने।
दन्तों को वह मीसे ऐसे,
और किट किट कर लगा बजाने।
शीत ऋतु के बादल काले,
काले काले और काले।

 


मानव तब ठण्डक से बचने को,
सब अग्नि लगे जलाने।
गगन मंडल काला था वैसे,
आग जली जली जलने।
पर वह हुए और पीले काले।
टपक पड़े खण्डित छत छप्पर से,
देख निवासी लगा मलमलाने।
यहाँ देखते वहाँ देखते,
कोशिश करें स्वयं को बचाने।
ग्रीष्म ऋतु के बादल काले,
काले काले और काले।

 


झड़े झड़े कोहरे जैसे,
रिमझिम रिमझिम रिमझिम रे।
निकले तभी सतरंगी राजा,
पालकी में देखो सजे सजे।
मेढ़क तालाबो में झूमे,
तैरे मटके लगे टर्राने।
घोँघा घोंघी टकराये आपस में,
खोले फाटक जोंके लगी बाहर आने।
मछली की आँखे भर आई सी,
लगी अपनी प्यास बुझाने।
केकड़ा बेचैन हुआ था बैठा,
काले काले बादल देख लगा लंगड़ाने।
जल वनस्पति लगी सज सँवरने,
श्रृंगरित हो मन ही मन में,
लगी गीत खुशी के गाने।
भूमि भी अपने चुम्बन से,
हर बूँद को लगी चूमने।
तब चूमचाम के चूर हो चली,
धरा का हृदय लगा घबराने।
कठोरता से यह नम्र हो चली,
आकृतियाँ भाँति भाँति की लगी सजाने।
वर्षा ऋतु के बादल काले ,
काले काले और काले।

 


झपड़ झपड़ खूब छपाछप,
घनघोर घटा से वर्षा रे।
चौपायों के राज हो चले,
जो गया पोखरों में लगा नहाने।
हाँड़ माँस तब डूब चला रे,
तब गर्दन ऊपर लगा उठाने।
छाया हर तरफ़ वारि वारि,
मानो आईना लगा दिखाने।
कहीं सरोज कुमुद या नलनी,
यह यौवन को और लगा बढ़ाने।
सजी हो नव दुल्हन बनी धरणी,
और तम्बू बने हो बादल काले।
बने बाराती नाच रहे हो,
मयूर मत्स्य मेँढ़क फ़ूल व अन्य सारे।
और ढोल ढमाके बजा रहे,
काली बिजुरी के नगारे।
उनके ज़ोर नाच पड़े रे,
मेघ घटा से काले काले।
घनघोर घटा के बादल काले,
काले काले और काले।

 

 


सर्वेश कुमार मारुत

 

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