Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पैसा

 

संसार में भीहड़ है कितनी, और रूप भी है कैसा-कैसा?
संसार लगे छोटा अब तो, क्योंकि बड़ा जुड़ा यहां पैसा।
संसार तुच्छ है इसके बिन, चला यहां है क्यों पैसा?
इसे रूप दिया किसने इसको?, और रूप दिया किसने पैसा?
जगत एक देश प्रथक-प्रथक, कहीं चले दरहम,रूबल और पैसा।
नाच नचाता कैसे-कैसे?, थका न व्यक्ति पर थक गया पैसा।
हाथ पड़ा जिस-जिस के भी, और चूम चला देखो पैसा।
रंग तो बदला है कुछ इसका, पर मान घटाना है पैसा।
कुछ अपवाद छोड़ चले हैं, कुछ हो सकता है ऐसा वैसा।
इसकी खातिर लोगों ने भी, करतब किया कैसा-कैसा?
सुनो कहानी तुम इसकी, निज मानुष और देवता।
बच्चे ने तोतली भाषा में, पापा दे दो मुझे पैसा।
पाप ने तब उसे दिया, और छोड़ दिया कुछ पैसा।
खाते-पीते लोग वही हैं, जिनके पास हैं पैसा।
न नून मिले और न रोटी, क्योंकि इनके पास नहीं पैसा।
यहां चले वहां चले, देखो दूर खड़ा पैसा।
चढ़ा चढ़े थे बलि जिनकी, क्योंकि उन्हें चाहिए था पैसा।
लूट चले हैं क्यों उनको?, और रूप बदल कर ले पैसा।
बाप,माता या और कोई, क्यों मानें इनसे बड़ा पैसा?
शादी में लूटा चले थे, जिनके पास था जितना पैसा।
चढ़ चले हैं ऐसे घोड़ी पर, और गले पड़ा उनके पैसा।
रूप दिया किसने इसको?, और नाम दिया इसको पैसा?
जन्म,बाल्य,प्रौढ़, या मृत्यु तक, पर चाहत है पैसा-पैसा।
शासन चला चलता ही रहा, और साधन है इसका पैसा।
इसको उंगली उसको उंगली, साथ जुड़ा इसके पैसा।
घोंटाले ही घोंटले हैं, और छिपा दवा इसमें पैसा।
दम भी अब तो तोड़ चूका है, जहाँ छिपा दवा यह पैसा।
समय तीव्र से बदल चुका है, पर मोल रहा वही पैसा।
अन्तर तो इतना हो सकता, छोटा पहले था अब बढ़ चला पैसा।
पकड़ गया लो रिश्वत लेकर, छुपा हुआ इसमें पैसा।
पकड़ गया यह बात ठीक है, पर छूट गया फिर दे पैसा।
रूप दिया किसने इसको?,और नाम दिया किसने पैसा?
एक भिखारी असहाय मानव, उसने डर- डर के माँगा पैसा।
किसी ने दया दृष्टि दिखाई, और छोड़ दिए उसको पैसा।
और कोई देख तिरछा हुआ, बोल पड़ा है न पैसा।
बीमार पड़े हुए जन ऐसे, चाहत थी उनकी पैसा।
मरा हुआ धुन में इसकी, पर मिला नहीं उतना पैसा।
ग़रीब कार्य करबाए सरकारी, पर बोले पहले दो पैसा।
बजट पारित हुआ है जितना, सभी को मिलना है पैसा।
पर आते आते लुप्त हो चला, और बोल दिए कि बचा न पैसा।
महंगाई अब बढ़ती ही चली, खाने-पीने,आने-जाने का रूप हुआ कैसा
पैसा अब तो घट के रह गया, पर बढ़ा नहीं कोई पैसा।
आवश्यकता हर मानव की, और आता- जाता है पैसा।
गुणा-भाग करते कैसे-कैसे?, घट बढ़ जाता है पैसा।
नाच नाचता है सबको, पर है वैसा का ही वैसा।
रूप दिया किसने इसको?, और नाम दिया किसने पैसा?
पैसा है नींव के जैसा, इसी पर खड़ा हुआ रुपया।
एक रुपए में हो जाते हैं, उधर हो चले सौ पैसा।
पैसा हर वस्तु दिखाए, पर सत्य दिखाए न पैसा।
रूप दिया किसने इसको?, और नाम दिया किसने पैसा?
एक पलड़े में ईश रखें, और दूसरे पलड़े में पैसा।
ईश को यह तो छोड़ चले, और चलते बने यह ले पैसा।
मान बड़ा अब तक उसका, क्योंकि वह पैसे पर है बैठा।
सभी बोझ से हाँफ़ चले वह, पर हाँफा नहीं है इस पैसा।
किसी को प्रेम लिप्त करा दे, और परलोक भिजवा देता पैसा।
रूप दिया किसने इसको?, और रूप दिया किसने पैसा?
चली दलाली देखो कैसे? एक कोने पर खड़ा लेनेवाला पैसा।
मिल बैठे खाते हैं कैसे? और दिया-लिया देखो पैसा।
परीक्षा में बैठा है कैसे? और किया करतब कैसा-कैसा?
सूझ उठी तब उसके मन में, और साठा चला उसको पैसा।
बढ़ा था इससे ही लेकिन, और टांग अड़ाता है पैसा।
खोज बीन चल पड़ी तभी थी, और कुछ ऐसा और कुछ वैसा ।
पैसे के पीछे पैसा दौड़ा, देखो वृत्त बन चला है कैसा?
पर किसी को जकड़ा ही नहीं, नहीं पता ही चल पाया पैसा।
रूप दिया किसने इसको?, और नाम दिया किसने पैसा?
जिसने हमको दिया है सबकुछ, फिर उन्हें क्यों आवश्यकता है पैसा?
इनकी आड़ में क्या-क्या करते?, और लूट चले हैं सब पैसा।
सच्चाई से वाक़िफ़ हैं वे, फ़िर क्यों दे धोखा ऐसा-ऐसा।
इन्हें पता की ईश नहीं हैं, तभी करता ऐसा- वैसा।
इन्हीं के नाम पर क्या-क्या करता?, और नाम लिया कैसा-कैसा?
वह नाग बना बैठा पूँजी पर, और वह पूँजी पर है बैठा।
पर सत्य चरा-चर है ऐसा, कि साथ जा पाए न पैसा।

 

 


सर्वेश कुमार मारुत

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