सच्चाई अब डूब चुकी है,
न जाने उनकी आँखों से।
डुबा दिया देखो हम सबको,
न जाने क्यों अपने हालातों से।
जख़्म दिया ऐसा जिसने,
उसने क्यों अपनी बातों से।
सब सहम रहे अपने मन में,
और टूट चुके ज़ज़्बातों से।
वह इन्सान नहीं चौपाए हैं,
जो रुका नहीं अहसासों से।
मृत्य हो चली सारी इच्छाएँ,
उनके ऐसे बखानों से।
जिसे जानती है सारी दुनिया,
वह खौफ़ दिखाए वारदातों से।
नम्र आँखों से फूट पड़े,
देख उनके कारनामों से।
धूल पड़ी हम सब पर क्यों?
क्यों माने उनके फरमानों से?
लूटा है इस जग को कैसे?
बकवाजों और झूठ फ़रेबों से।
तड़प उठा अब जन भी ऐसे,
क्योंकि सबकी बनी है प्राणों से।
चोंच बड़ी पर क्या कर सकते?
जहाँ लगें हैं लोग कतारों से।
आँखों में यह मोती ऐसे,
इन्हें भी छीन लिया सबकी आँखों से।
लूट चुके आवरु जिनकी ,
क्यों वे बढ़कर हैं भगवानों से।
छुपा हुआ बस छुपा हुआ,
पर खौफ़ दिखाए ख़्वावों से।
ज़ुल्म ढहा हम सब पर इतना,
सब तिल तिल मरते हैं हालातों से।
जिसकी लाठी भैंस उसी की,
नष्ट न हो जाएँ ऐसे शासन से।
साक्षर तो हुए हैं पर लेकिन,
पर ज्ञान नहीं झूठी सच्ची बातों से।
साक्षर हो अनजान रहे सब,
फिर भी मिला धोखा खुली आँखों से।
सर्वेश कुमार मारुत
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