Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तू मुझमें छिपी , मैं तुझमें छिपा

 

( 1)
तू मुझमें छिपी , मैं तुझमें छिपा।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ, मैं अपनी प्यास बुझाऊँ।
तरसूँ मैं तो तेरे बिन, फिर और कहाँ मैं जाऊँ?
तेरे रूप का ऐसा चर्चा, न शब्दों में कह पाऊँ।
होंठ रसीले-नयन कटीले, फ़िर मैं कैसे बच पाऊँ?
चाल तुम्हारी बड़ी अलबेली, मैं देख वहीं रुक जाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 2 )
वक्ष उभरते प्रखरित यौवन , तो मैं कैसे रह ना पाऊँ?
केश तुम्हारे मंगल गाते हैं , मैं भी देख उन्हें इतराऊँ।
रसना को जब वह हिलाए , काया को मैं हिलाता जाऊँ।
मन्द-मन्द सी हँसी तुम्हारी , तुम्हें देख के मैं भी मुस्काऊँ।
ज़िस्म तुम्हारा है सागर सा , जिसमें डूब के मैं मर जाऊँ।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ , और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 3 )
ओ! प्रिय तुम क्यों रूठी हो , मैं कैसे तुम्हे मनाऊँ ?
तुम हो बावली और पगली सी , रुक - रुक कर रह जाऊँ।
बात सुनों हे मेरी प्यारी , गिले- शिकवे कैसे मिटाऊँ ?
इतना सब हो जाने पर , मैं पल - पल कैसे मिटाऊँ ?
हे! प्रिय अब तुम हीं जीतीं , मैं ही तो हारता जाऊँ ।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 4 )
तुम्हारे प्रेम में हुआ बावला , मैं जग में कैसे रह पाऊँ ?
या तो आग लगा लूँ खुद को , या जग को आग
लगाऊँ।
घुट-घुट कर मरता हूँ मैं तो , और मैं कैसे जीता जाऊँ ?
हे ! प्रिय तुम हो मेरी बदली , और मैं तेरा चातक हो जाऊँ।
हे! तू प्रिय जल है ऐसा , मैं तुमको ही पीता जाऊँ ।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ , और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 5 )
माना सारा विश्व है नश्वर, मैं भी एक दिन मर
जाऊं।
पर जो भी हो इस छोटे पल में, मैं तुम से ही आंख मिलाऊँ।
नैन अधमरे भटक रहे हैं, मैं कैसे इन्हें जियाऊँ?
हृदय भी तो भभक रहा है, मैं इसको बुझा ना पाऊं।
हे! प्रिय अब आ भी जाओ, मैं तुम बिन ना रह पाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं , और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 6 )
जाति-पाति अलग है उसकी, पर मैं ना अलग रह पाऊँ।
इस जग के बोल अटपटे, मैं तो सुन ना पाऊं।
पीछे पड़े क्यों हम दोनों के?, यहां और कहां मैं जाऊं?
इस नश्वर संसार में पड़कर, शायद मैं प्यार अमर कर जाऊं।
हे! प्रिय तुम ना रूठो मुझसे, तेरा जीवनभर साथ निभाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 7 )
बाल-काल में था खोया मैं, पोथी पढ़ने में ध्यान लगाऊँ।
शनैः - शनैः जब यौवन छाया, मैं खुद को कैसे बचाऊँ?
बाल-काल ही अच्छा था , अब मैं कैसे इससे बच पाऊँ?
हे! प्रिय तुम जब से मिली हो, कहीं ध्यान लगा न पाऊँ।
नित-नित उलझन तुम बिन है, तुम बिन कैसे इसे सुलझाऊँ?
मैं तुझमें ही खो जाऊँ, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 8 )
तुम अन्जान-वन्जान सही हो, मैं खुद का परिचय कैसे कराऊँ?
शर्म हया के लफ़्ज तो खोलो, फ़िर मैं आगे बात बढ़ाऊँ।
तुम चिन्ता इतनीं क्यों करती हो?, मैं जग से भी लड़ता जाऊँ।
हे! प्रिय तुम हाँ या न कह दो, दिल ही दिल में मलमलाऊँ।
तुम दिल के कण- कण में छिपी हो, मैं वह परमाणु जाऊँ।
मैं तुझमें ही खो जाऊँ , और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 9 )
हे! प्रिय यदि प्रेम स्वर्ग है , तो मैं स्वर्गवासी हो जाऊँ।
हे! प्रिय यदि प्रेम नरक है, तो खुद को इसमें मिलाऊँ।
हे! प्रिय यदि प्रेम ख़ुशी है, तो मैं दुगुनी होता जाऊँ।
हे! प्रिय यदि प्रेम कष्ट है, तो मैं इसको सहता जाऊं ।
हे! प्रिय प्रेम जो कुछ भी है, मैं सब पर न्योछावर हो जाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 10 )
प्रेम अगर दरिया ही है तो, मैं भी इस में डूबता जाऊं।
हे! प्रिय प्रेम अंगारे हो , तो बिन पानी पीता जाऊं।
हे! प्रिय एक दृष्टि उठाओ , तो मैं भी उठाता जाऊँ।
तुम मरघट या हो कब्रस्तान, मैं इसका मुर्दा हो जाऊं।
यहां सोयें सब चिर- निद्रा में , मैं भी क्यों ना सो जाऊं?
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 11 )
तुम बिन जीवन है सूना सा, अब सूना ना रह पाऊँ।
जिस्म सुखकर हुआ राख है , और तेरी और ही उड़ता जाऊं ।
तुम नहीं मानो यदि हे! प्रिय, राख बन तुझको ही छूता जाऊं।
हो सके यदि बवण्डर आए, तो मैं तुझसे छूकर कर जाऊं।
भाग्य की मार झेली है मैंने, मैं यह भी झेलता जाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 12 )
क्या हो सकता है अब मेरा?, और कैसे तुम्हें बताऊं?
हे! प्रिय यह तुम्हारे हाथों में , तब ही मैं बच पाऊँ।
हे! प्रिय तुम ना भी मानो , तो एक बात मैं तुम्हें बताऊं।
प्यार भरे शब्दों में हां या ना कह दो, फिर दिल को मैं समझाऊं।
जीता रहूंगा मैं तेरे ही नाम से, अंतिम समय तेरा नाम लेते मर जाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 13 )
तुम ही खुदा और ईश्वर हो, मैं तुझमे फ़ना हो जाऊं।
हर मजहब में लिखा एक ही, मैं क्यों पीछे रह जाऊं?
खुदा प्यार और ईश्वर है , मैं तुझको अपना बनाऊं ।
प्रेम करो लिखा मानवता से, मैं वह मानव होता जाऊं।
पर रूखे - सूखे लोगों में फंसकर, अब मानवता कैसे निभाऊँ?
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 14 )
अपार प्रेम करे कोई धन-दौलत से, मैं तुझसे ही करता जाऊं।
प्यार करे यदि कोई मदिरा से, तो मैं मदिरा तुम्हें बनाऊँ।
धूम्रपान पान करते हैं जन, मैं प्रेम-पान करता जाऊं।
प्रेम डोर में फसो हे! मानव, तब ही मैं तर पाऊँ।
चार पलों का बंधन ऐसा, मैं तो तोड़ ना पाऊँ।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 15 )
हम मानव कच्चे धागे के, तुम्हें कैसे जोड़ता जाऊं?
तुम्हारे गुस्से को आग में रखकर, प्रचंड ज्वाला में जलाऊं।
भूख प्यास अब कुछ ना बची, जो तुमसे मिलना पाऊं।
कितने जनाजे आए-गए हैं , मैं भी एक होता जाऊं।
पर उम्मीद बस एक ही बाकी, मैं तुमसे ही मिल पाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं, और अपनी प्यास बुझाऊँ।
( 16 )
पर मैं तुच्छ मानव ऐसा हूं , और मैं क्या कर पाऊँ ?
इस शरीर को ख़ाक में करके, मैं आंखों को ले जाऊं।
इन आंखों में छवि तुम्हारी, मैं सातों जन्मों तर जाऊं।
चाहे जन्म मिले फ़िर जैसी भी, मैं खुशी-खुशी जीता जाऊं।
पर जहां भी जाऊं जिस भी रूप में, मैं तुमसे ही मिल पाऊं।
मैं तुझमें ही खो जाऊं , और अपनी प्यास बुझाऊं।

 

 

 


रचयिता- सर्वेश कुमार मारुत

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