शख्सियत पर शख्सियत को , क्यों न लुटा कर देख ले।
फ़िर बने रौनक- ए- ज़िंदगी, तेरे लिए मेरे लिए।
सोचता क्या फिर रहा तू ?, व्यर्थ कर यहाँ से वहाँ ।
मरना है एक दिन सभी को, और फ़िर जाना कहाँ?
कुछ साथ है,-कुछ छूट जाते, डगर पर डगर चलते हुए।
पर न कर गुरूर खुद पर, साथ चल और हौसला देते हुए।
इंसानियत ही इंसानियत हो, और न हो कुछ भी यहाँ
इंसानियत ही इंसानियत रहे बस , और न कोई पाप होगा यहाँ।
सर्वेश कुमार मारुत
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