राष्ट्र का सौदा भी कोई रोज़गार है ?
करने को जब इस मुल्क में लाखों व्यापार हैं.
सरे आम शर्मसार हैं हर घर की बेटियाँ .
आँखों के धृतराष्ट्र हम, कितने लाचार हैं.
तारीख़ ने भी कैसे करवट बदल लिया.
कृष्ण तो रहे नहीं, द्रौपदी हजार हैं.
संतों की हम संतान हैं , पहचान है इतनी.
वाणी तो उनकी खो गयीं, उनके मज़ार हैं.
फिर वक़्त दे रहा है , एक वक़्त बदलने का.
मरीज आप ही हैं , आप ही उपचार हैं.
--- सतीश मापतपुरी
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