Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आँखों के धृतराष्ट्र

 

राष्ट्र का सौदा भी कोई रोज़गार है ?
करने को जब इस मुल्क में लाखों व्यापार हैं.


सरे आम शर्मसार हैं हर घर की बेटियाँ .
आँखों के धृतराष्ट्र हम, कितने लाचार हैं.


तारीख़ ने भी कैसे करवट बदल लिया.
कृष्ण तो रहे नहीं, द्रौपदी हजार हैं.


संतों की हम संतान हैं , पहचान है इतनी.
वाणी तो उनकी खो गयीं, उनके मज़ार हैं.


फिर वक़्त दे रहा है , एक वक़्त बदलने का.
मरीज आप ही हैं , आप ही उपचार हैं.

 


--- सतीश मापतपुरी

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