दरिया में ही ख़ाक हुए, ये कैसा शरारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है.
यहाँ छांव जलाती है,मुस्कान रुलाती है.
रातों में खुद को खुद की ही, परछाईं डराती है .
ये कौन सी दुनिया है, ये कैसा नज़ारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है.
बीच भंवर में अटक गए, मंजिल से हम भटक गए.
वक़्त ने ऐसा पत्थर फेंका, सारे सपने चटक गए.
मापतपुरी को अब बस, मालिक का सहारा है.
साहिल पे ही डूब गए, ये कैसा किनारा है
-------- सतीश मापतपुरी
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