Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बच्चन की मधुशाला

 

नये नये पाठक गण आयें

हों कितने भी पीने वालें,

कुछ जोड़ दिया पहले वाले में

मैंने भी अपना प्याला;

आयें सब चख इसे बतायें

कितनी इसकी मादकता ;

प्याला चुन-चुन बतलायें सब

क्या सच्ची यह मधुशाला ? १

 


कितनों ने पूछा मुझ से यह -

समझे इसको क्या अपना प्याला ?

मैं न पापी ऐसा समझूँ ;

जग तुम्हे समर्पित बच्चन हाला ;

मान बढ़ाना इसका इतना

फले-फुले, यह बनी रहे ;

मैं तो साकी बन कर आया,

हूँ लाया बच्चन-मधुशाला । २

 



यह बच्चन की मधुशाला

जिसको लेकर मैं आया,

ले-लो स्वागत इसका भी हो

जो सन चौंतीस से अब तक छाया ;

नहीं अभी भी रस खोया इसने,

मादकता भी बढ़ी हुई है ;

जब-जब जितने भी आयें हों, सबने ही स्वागत पाया

अब भी आँख बिछाए बैठी , हाँथ पसारे मधुशाला । ३

 


प्यासा दर-दर भटकेगा ना

आज हूँ लाया ऐसा प्याला,

मिले मधु उनको भी,आ जा

जिसने है गऊ को पाला ;

आज निचोरूँगा जीवन के

सारे पीने वाले रस को

और उसे तब भर प्याले में

जग,तुम्हें बुलाऊंगा मधुशाला । ४

 


प्रेयसी, अपने दिल की चाभी से

खोल दो मेरे दिल का ताला,

आज मैं छू अधरों को तेरे

पा जाऊँगा मैं हाला ;

मैं तुझ से हूँ,

तू मुझ से है ;

एक दूजे का हाँथ थामकर

आओ,चलें हम मधुशाला । ५

 


कल्प चित्र हैं कितने खींचे

शब्दों की पिरोकर माला,

लाया जग तुमको दिखलाने

मैं अपनी कविता-प्याला;

भर-भर लोटा खाली करने,

आ न पाया कोई समंदर !

क्या हुआ कभी पीने से खाली, यह जीवन कविता-प्याला,

आज कोटियों पाठक गण हों, नहीं भरेगा मधुशाला । ६

 


चलता रहा निरंतर खुद मैं

दिया बनाकर ढेरों प्याला,

कईयों ने इनकार किया है,

बहुतो ने स्वीकारा प्याला;

इस मदिरा को पीकर मैंने

देखा और महसूस किया

शायद सबसे ज्यादा मादक, हाला, प्याला दोनों ही

मेरा जीवन, मैं मधुशाला । ७

 


अपनी शाळा से निकला

था जाने को मदिरालय,

राह भटक, मन सकुचाया

थम गया वहीँ पीनेवाला;

अगर बढ़ाए पग सीधे को

नाक-सीध, बढ़ पवन-गति सा

कोई न दूजा पथ अपनाना,

आगे को है मधुशाला । ८

 


कितना खोजा हाय परन्तु

दिखा हमेशा लटका ताला,

आगे बढ़ता जाता जितना

दूर दीखे, उतना प्याला;

कर के अपना जीवन जाया,

नहीं अभी तक कुछ पाया;

हाय रे, किस्मत मेरी ऐसी

ढून्ढ रहा अबतक मधुशाला । ९

 


जाप निरंतर करता बढ़

जाम-जाम, मदिरा, प्याला ;

आँख मूँद पथ पर चलता चल

अधरों पर न नाम कोई दूजा, केवल-केवल हो हाला ;

सच्चे मन से एक पुकार,

पहुंचेगी साकी के पास ;

हाँथ बढ़ा बुलवा लेगी, तुझको

यौवन साकी का, मधुशाला । १०

 


नाम न कुछ भी सुन पाता, जब

गूँजें कानों में प्याला,

अधरों पर ना नाम कोई दूजा

बस सुरा -सुराही और हाला;

जग पूछ रहा साकी-साकी,

भरा सुराही किधर को रक्खा,

साकी कह बुलवाती, आ मतवाले,

तेरी ही यह मधुशाला । ११

 

सतीश कुमार

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