दर्द मेरे दिल का स्वाभिमान मेरे देश का
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| Dec 18, 2021, 7:33 PM (10 hours ago) |
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महोदय
देश की वर्तमान परिस्थितियाँ जो हमारे सामने दिख रही है उससे तो आज प्रत्येक देश भक्त के मन में अजीबोग़रीब दर्द का अहसास होता होगा , और क्यों न हो आख़िर उसका भी अधिकार है इस देश पर और उसका भी कोई कर्तव्य है इस देश के प्रति !
कभी मन ये सोचकर बहुत दुखी हो जाता है कि आख़िर क्या हो गया है हमें या इस देश के नागरिकों को ? कहते नहि थकते ये नेता कि , “हम लाए है तूफ़ान से किशती निकल के , इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के “ कितना भाव प्रधान था ये गीत ?
न अब वो नेता है न वो लोग और न ही वो भाव जो देश के स्वाभिमान को समझ सकते है और न वो संग दिल है जो उस भाव और दर्द को महसूस कर सकता हो ।
देश को किशती से निकाल के जो लाए उनको बड़ा विश्वास था इसलिए कह गए थे वतन पे जो फ़िदा होगा .....पर ये क्या हो गया केवल थोड़े से सालों के बाद ?
मुझे अच्छी तरह याद है मेरे पिता जी फ़ौज में थे तब घर तो छोड़ो पूरे शहर में उनका जलवा था , उनकी वजह से पूरे परिवार को सम्मान की नज़रों से देखा जाता था और हमारे घर के अलावा बाहर भी अनुशासन और देश भक्ति का ही माहोल हुआ करता था । भारत और चीन के बीच हुए युद्ध में तो जैसे भक्ति की शक्ति देखने मिलती थी ।
ये बात हम लोग कभी नहि भुला सकते है कि उस समय के बाद भी काफ़ी वर्षों तक अपने काम ख़ुद हो जाया करते थे शायद ही कभी किसी ने किसी काम के लिए रिश्वत ली हो , काम करने का जज़्बा सेवा भाव से जुड़ा होता था ।
शायद ही कभी कोई ऐसा काम होता हो जिससे पुलिस को बुलाना पड़ता हो , आदमी का मन और उसकी ज़ुबान की क़ीमत थी बोल दिया तो बोल दिया ।
कलेक्टर और नेताओ के चरित्र अनुकरणीय होते थे , कोर्ट से तो कोई मतलब ही नहि होता था , अगर कभी जाना भी पड़ा तो आसन हमको पूर्ण सम्मान देता था , उसके सामने गवाह की एक इज्जत थी ,कोर्ट का मानना था कि न्याय दिलाने में गवाह एक महत्व पूर्ण व्यक्ति होता है।
पढ़ायी का ज़ोर इतना नहि था कि कभी नक़ल करने के लिए सोचना पड़े, प्रथम श्रेणी में एक या दो लोग ही होते थे जिन पर स्कूल को नाज़ हुआ करता था ।
आज सारी परिस्थिति बदल गयी , चरित्र नाम की कोई चीन ही नहि बची, किसी की ज़ुबान पर कोई भरोसा ही नहि रह गया है , सेवा तो दूर इस भाव से भी लम्बी दूरी बन गयी है , स्वार्थी तत्वों ने अपने कर्म भाव और सेवा भावों को तिलांजलि ही दे दी है अपने पालन हार के प्रति भी वो कपटी हो गया है , वह भी वो अपनी अपेक्षा रखता है ।
शिक्षा और चरित्र की तो बात ही दूर हो गयी , जो ज़्यादा शिक्षित वो उतना ही “अभिमानी और स्वार्थी “
डिग्री पाकर नौकरी करना ही एक उद्देश्य हो गया है , इस पर भी कुछ तो अच्छी शिक्षा से देश और समाज के प्रति अपने शुद्ध विचार संजो के रखते भी है पर आज की कु व्यवस्था / कुशासन उन्हें जीने ही नहि देती है और मजबूर होकर उसे अपने कर्तव्यों की बलि देनी पड़ती है , पहले हमारी न्याय व्यवस्था में न्याय दिखता था क्योंकि वो उस इंसान को एक निश्चित वक़्त में मिल जाता था ।
आज मेरी उम्र क़रीब ७० साल की हो गयी है , जीवन में बहुत कुछ उतार चढ़ाव देखा है , देश जे एक से एक समर्पित नेताओ से सम्बंध रहे अच्छे अच्छे प्रशासनिक अधिकारियों के साथ व्यवहार रहा उनके साथ मिल कर लोक सेवा के काम किए
कभी मन अशांत नहि हुआ जितना आज की परिस्थिति को देखकर लगता है !
आज हमारा समाज पूरी तरह से राजनीति पर निर्भर हो गया है , सब कुछ मुफ़्त में मिले ये सोच हो गयी है उसकी, सब कुछ नेता करें यही माँग रह गयी है हम अपने कर्तव्यों के प्रति जवाब देह नहि होते है बस अधिकार ही अधिकार की बात करते है और संविधान की बात बताकर , लोकतंत्र की बात बात कर न्याय पालिका का सहारा लेते है ।
अपने मन में एक ज़िद्दी स्वाभाव लेकर देश के साथ कैसा व्यवहार कर रहे है ता करवा रहे है तनिक भी नहि सोचते है !
आख़िर क्यों सोंचे ? उन्हें मालूम है कि यदि हमारी ज़िद पूरी नहि हुई तो हमारा वोट इनको नहीं , हमारा वोट केवल उनको जो हमारी जिद्द को पूर्ण करें।
ऐसा लोक तंत्र जो साल भर चुनाव के घमासान की ही तय्यारी करता रहे , हमेशा झूठे वादों के सहारे मुंगेर लाल के सपने देखता रहे कैसे स्वाभिमानी देश बन सकता है , कही कभी किसी बात पर सहमति नहि हो फिर लोकसत्ता की बात करे , कैसे होगा ? क्या मात्र विरोध ही लोक तंत्र की पहचान है?
इसे कौन समझेगा या समझायेगा?
इंसान का इंसान से विश्वास उठता दिखायी दे रहा है फिर कैसे ईश्वर को साक्षी मानकर शपथ लेते है जन सेवा की ?
वास्तव में ये शपथ तो अब बेमानी है हाँ बेमानी की शपथ ज़रूर सही है जिसका हम सब पालन कर रहे है ।
सतीश वर्मा
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(Satish verma)
M.Sc (Botany).LL.B,
PGDBM, PGDHR,
Reiki master,
Social worker,
Orater and writer
9822459513
(Society needs our help ,
Nation needs your dedication)
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