बारिश की बौछार की गूँज
बिजली के टंकार की गूँज
शहीदों के तलवार की गूँज
गूंजती हो यथा शेर की दहाड़ की गूँज
भुजंग शैलपुत्र नापते आसमान को
अलंकृत हैं श्याम सफ़ेद बादलों की टोप पहने
जैसे हों शिव विराजित संग जटा-जूट गहने
शिव सर्प माला श्वरूप
हिम आच्छादित है शिखर पर
सूर्य की किरणों से साझा हो रहा सौंदर्य है
ओ हिमालय मेरी दृष्टि चूम रही नैसर्ग्य है
जोर की आवाज आई सरकती मेरी तरफ
बरसात में ओले गिरे भरकते मेरी तरफ
मैंने जो आवाज दी -हे प्रकृति क्या है तू?
किरणों ने आसमाँ सजाये
बदली सारा जग घूम आई
हवाओं ने करताल बजाये
पेड़ झूमने लगे लहरियां गूंजने लगीं
जैसे हो किया अभिवादन मेरा झुक कर मेरी तरफ………
मेरा भी शत शत नमन
हो कर भी मौन तुझको
तू तो है सर्वश्व मेरी
करती क्यों मुझको नमन
पिसती रहती है क्यों तू
करने में मेरी तृष्णा शमन
………कहने लगी-
मैं माँ हूँ तेरी
सेवा ही है मेरा धरम
करले तू आहात भी मुझको
करती रहूंगी मैं अपना करम….
बरसने लगे नयन मेरे
गरज न जाने कहाँ गयी
जाना के माँ होती है क्यूँ
और ममता जैसे महान त्याग को
माँ प्रकृति ने दिया
है कितने उपहार हमको
पर हमने छीना हक़ समझ
भूल गए उपकार माँ का……
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