- सत्यनारायण पंवार
जीवन प्रकृति का उपहार है। जब से जीवन पृथ्वी पर आया है तब से जीवन के विकास के लिये सभी जीवों के लिए रोटी कपड़ा और मकान महत्वपूर्ण है। ये मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण होने के बाद संसार के सभी जीवों का एक मात्र उद्देश्य है सुख की तलाश। बुद्ध चाहते थे जीवन में आनन्द की वर्षा हो। सुख का पहला सूत्र है दुख की स्वीकृति ।जीवन में दुख है और रहेगा। उसे स्वीकार करने का उसे समझ सकने के लायक प्रज्ञा चाहिए। सुख का दूसरा सूत्र है यतार्थ और स्वप्न की पूर्ण स्वीकृति। यतार्थ के बोध से रहित सुख हो ही नहीं सकता और जिनके जीवन में स्वप्न नहीं वे सुख की पहली सीढी भी नहीं चढ सकते ।वास्तव में जीवन में मानव को जिसकी तलाश है उसे पा लेना ही सुख है नहीं पा लेता तो दुख है। फंे्रकलीन का मत है कि अच्छा और सुखों भरा जीवन धीरे धीरे आता है क्योंकि उसके लिए श्रम करना पड़ता है। हमारी महत्वकांक्षी अपेक्षाएं और जीवन की वास्तविकता के बीच सुख का बाजार पुल की भुमिका में खड़ा है।
इस बाजार पर एक नजर डाले तो सबसे आगे है चिकित्सा का बाजार जो स्वास्थ्य के समानान्तर सौंर्दय की ललक में जी रहे उपभोगताओं को खीच रहा है। इसके आगे मनचाहे स्वास्थ्य और सौन्दर्य की गारंटी देता फूड बाजार। हम स्वस्थ होगे तो ही दूसरे सुखों को भोग सकते है। सबसे बड़ा सुख निरोगी काया ही है। हमारी काया हमारा तन ही नहीं, तन ,मन और बुद्धि का योग है। हमारा तन हमारे खानपान से प्रभावित होता है। तन हमारे मन का दर्पण है। जैसे तन वैसा मन। वैसे सुख और सेहत को लेकर कोई सामान्य धारणा नहीं बनाई जा सकती। जरूरी नहीं कि हष्ट पुष्ट दिखने वाला व्यक्ति सुखी ही हो। सुख का आधार स्वास्थ्य है तो स्वास्थ्य की कुंजी है हमारे विचार। संतुलित आहार और नियमित व्यायाम से स्वास्थ्य अपने आप पीछे चला आता है। आपकी खुशियां आपके अच्छे स्वास्थ्य की प्रतिबिम्ब होती है। जिसके पास स्वास्थ्य है उसके पास उम्मीद है और जिसके उम्मीदे है उनके पास सब कुछ है। जीवन में स्वास्थ्य की स्थिति से संतुष्ट होना सबसे बड़ा सुख है। वी.के. आयंगर कहते है स्वास्थ्य सम्पूर्ण शारीरिक सदभाव है शारीरिक और मानसिक समस्याओं से मुक्त होेने पर सुखों के द्वार स्वतः खुल जाते है ।बुद्ध ने भी स्वीकारा या कि सुख का द्वार स्वास्थ्य के रास्ते से हो कर आता है।
सुख के बाजार में आगे है सेल्फ इम्प्रवमेंट प्रोडक्टस यानि अपने आप को विकसित करने वाली वस्तुएं जिसमें किताबों, सेंमिनार योगा मेंनेजमेंट और मोटिवेशन कक्षाएं। जीवन में ज्ञान और सुख मानवीय विधा का आधार अध्यापक और पुस्तकंे है। विद्या एक जादू है क्योकि पढने लिखने के बाद हर मानव को नया जीवन मिलने का सुख प्राप्त होता है। विद्या से विनम्रता प्राप्त होती है और विनम्रता से योग्यता। योग्यता से अच्छी नौकरी/व्यापार मिलती है और धन की प्राप्ति होती है। तत्पश्चात ही सुख की प्राप्ती होती है। विद्या मनुष्य को विशिष्ट बल देती है। विद्या सर्वत्र पुज्यतै का पद देती है। विद्या की पकड जीवन तक है इसलिए वह अधिक लोकप्रिय है। विद्या ही महाशक्ति है जो दुनिया के लोगों के जीवन को चला रही है जिसे माया भी कहा जाता है। जीवन में मनुष्य जाति द्वारा जितनी सुख की सुविधाएं दिखाई देती है और नयापन दिखाई देता है वह सब विद्या की देन है। इतना नहीं विद्या चांद सितारों तक ले जा रही है। विद्या एक राह है और ज्ञान लक्ष्य है। विद्या पढने से ही ज्ञान की समझ होती है। जीवन में जीने की कला के सारे गुण किस के पास है। इन गुणों के द्वारा विभिन्न सुखों को प्राप्ती कर सकती है। दुनिया मे 68 प्रतिशत लोगों का मानना है कि हायर एजूकेशन ही हायर इनकम और सुखद जीवन जीने का रास्ता है। इतना ही नहीं दुनिया में 38 प्रतिशत लोगों की धारणा है कि अध्ययन ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है। आकड़े बताते है कि अकेले अमेरिका में सेल्फ इम्प्रूवमेंट प्राडक्ट्स की इंडस्ट्री 10 बिलियर डोलर की है। खैर सुख का बाजार यहीं नहीं रूकता। इससे मनोरंजन और बुद्धिमता से लेकर रिश्ते और त्यौहार का बाजार खड़ा है जिसमें कर्म प्रधान है।
जीवन प्रकृति ,कर्म ,प्रयास ,उद्यम सब एक दूसरे से गंुथे हुए मनके है जो एक साथ जुडकऱ सुख की माला बनाते है। बंैजमीन फ्रेंनलीन का कथन है कि काम में लगा मेहनती हमेशा खुश रहता है और आलसी आदमी खुद को बेबस समझकर दुखी होता है। केवल स्वप्नों के बीज डालने से हकीकत की फसल नहीं होती। जब तक की योजनाबद्ध तरीके से खेती नहीं की जाती। परिश्रम से अर्जित सफलता का सुख अवर्णनीय है। इस सुख का गौरव भी है कठिनाईयों को जीतने का आम विश्वास और परम संतोष भी। श्रम पूंजी है।
योजना निवेशक और उसका परिणाम सुख है श्रम हमेशा सकारात्मक फल देता है बशर्ते नेक नीयत से किया जाय। अपने काम से खुश होना काम में पूर्णता लाता है। कर्म ही सुख का सूत्र है। जिस दिन श्रम की पूजा होगी मेरे हिन्दुस्तान में, सचमुच स्वर्ग उत्तर आयेगा हर आंगन खलियांन में।
यह जीवन कर्म प्रधान है। कर्म से ही यह धरती जीवन जीने योग्य बनी है। जो मनुष्य कर्म करता है उससे शरीर के स्वास्थ रहने का सुख मिलता है। कर्म ही जीवन है। गीता में कृष्ण के उपदेश में कहते है कर्म करो किन्तु फल की इच्छा मत करो ऐसा करना कर्म बंधन हीन हो जाता है। कर्म में आत्मबल है। बुद्धि का काम है ज्ञान अर्जन कर सुख प्राप्त करना। शरीर का कर्म है संतुलित भोजन करना और मन का कर्म है प्रवृति और निवृति। वास्तव में मनुष्य का कर्म ही भाग्य बना कर उसे सुखी करता है।
जीवन में सुख की कामना मनुष्य की आदिम इच्छाओं का केन्द्रीय भाव है। वह जो दुखी है उसे निसंदेह सुख की चाहत हैं और जो लोग सुखी हैं वह पहले से ज्यादा सुखी होना चाहते हैं यह सिलसिला चलता रहता है। संवेदनाएं मनुष्य को सरल और सुन्दर बनाती है ,प्रेम करने का अवसर देती है जो स्वतः सुख का कारण है। समाज के प्रति संवेदना हमें सभ्य बनाती है। किसी सामाजिक कार्य को करके जैसे वृद्धाश्रमों और अनाथलयों में अपनी सेवा और दान कर मनुष्य अपार सुख पाता है। मानव में सवेंदना का गुण ही उसे परिवार के बच्चों के पोषण और उनको भविष्य को सुरक्षित करके सुखी बनाता है। संवेदना हमारे जीवन में सुख का सहज कारण बनती है और हमे रूहानी तृप्ति प्रदान करती है।
सम्रद्धि के बिना सुख सम्भव नहीं है। जब मनुष्य नैतिकता की सीढियों पर चढकर समृद्धि के शिखर पर पहुॅचता है और अपने पाव भूमि पर टिकाये रखता है। उसने जो भी अर्जित किया उसका एक हिस्सा अपने अपने परिजनों मित्रों पडोसियों और समाज के शोषित वर्ग को इस भावना से समर्पित करता है और उसके बदले कुछ नहीं लेता तभी समृद्ध होकर सुखी रह सकता है। सच्चा सुख बाटना और आवश्यकता से ज्यादा कमाया धन बांटना। गौतम बुद्ध ने दुख के खिलाफ वर्षों के संघर्ष के बाद यह सूत्र दिया कि सुख को चिर मानना ही दुख का एक बड़ा कारण है जब कि सुख तो क्षणिक सघर्ष के बाद उपजी अनुभूति है। जितना बड़ा संघर्ष सुख भी उतना ही बड़ा।
सुखी जीवन की चाबी साधारण और छोटी बातों में तलाश लेना चाहिए सुकरात कहते है गूढ अर्थों को समझ लेना सुख है सुख का आज तक कोई सर्वमान्य समीकरण नहीं बन सका है। चोर चोरी करके खुश होता है दानी दान देकर, मजदूर रिक्शा चलाकर। अलग अलग व्यक्ति अलग अलग परिस्थितियों में सुख का अनुभव करते है। महात्मा गांधी के अनुसार सच्चा सुख वही है जब आप जो सोचे कहें और करे तारतम्य में हो। वास्तव में सुख एक मुल्यांकनामक स्थिति है जहाॅ हम स्वयं निर्णय करते है कि जीवन में क्या कितना पाया? खोने की तुलना में अगर प्राप्तियों का पलड़ा भारी है तो आप मानिये सुखी है।
वेद और भारतीय दर्शन के अनुसार मानुषिक प्रवृतिओं की निवृति में आनन्द आता है। मनुष्य में निसगत तीन प्रवृतियां है- आहार, परिग्रह और संतान। इन्ही के दूसरा नाम है तृष्णा, लोभ और काम। तृष्णा, लोभ और काम के इस त्रितत्व को विचारवान लोग अलग नहीं एक करके देखते हैं वे ही परमसुख अनन्त सम्पदा और अक्षय यश को प्राप्त करते है। मनुष्य लोभ के बाद त्याग और काम के बाद निष्काम भावना की ओर बढती है। अपने क्रियात्मक जीवन में हम सदा यह अनुभव करते है कि परिश्रम के बाद विश्राम मिले। जीवन में विश्राम को स्थिति तब आती है जब इच्छित या अभिलाषित वस्तुओं से चित्त विमुख हो जाता है। संसार से मन भर जाता है। इसी को हम निवृति कहते हैं। मनुष्य अपनी प्रिय अभिलाषित वस्तु प्राप्ति से जो परितोष या सुखानुभव होता है उसे आनन्द कहते है। अपने हिस्से का सुख हम सम्पूर्ण चेतना के साथ जिए और कहें सर्वे भवंन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया----------
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