Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

हारा-थका किसान*

 


हारा-थका किसान*
बजते घुंघरू बैल के, मानो गाये गीत ।
चप्पा-चप्पा खिल उठे, पा हलधर की प्रीत ।।
देता पानी खेत को, जागे सारी रात ।
चुनकर कांटे बांटता, फूलों की सौगात ।।
आंधी खेल बिगाड़ती, मौसम दे अभिशाप ।
मेहनत से न भागता, सर्दी हो या ताप।।
बदल गया मौसम अहो, हारा-थका किसान ।
सूखे-सूखे खेत हैं, सूने बिन खलिहान ।।
चूल्हा कैसे यूं जले, रही न कौड़ी पास ।
रोते बच्चे देखकर, होता खूब उदास ।।
ख़्वाबों में खिलते रहे, पीले सरसों खेत ।
धरती बंजर हो गई, दिखे रेत ही रेत ।।
दीपों की रंगीनियाँ, होली का अनुराग ।
रोई आँखें देखकर, नहीं हमारे भाग ।।
दुख-दर्दों से है भरा, हलधर का संसार ।
सच्चे दिल से पर करे, ये माटी से प्यार ।।
(सत्यवान 'सौरभ' के चर्चित दोहा संग्रह 'तितली है खामोश' से। )
डॉ.  सत्यवान 'सौरभ'


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ