Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

बोकारो

 

छोटे छोटे स्टेशन देहाती
इधर से राधागाँव
उधर से तुपकाडीह
बीच में गलियाँ
जहां छोड़ आया मैं
खुदको
दोस्तों संग
साइकिल पर
घंटों का रास्ता
मिनटों में तय करते हुए |
जहां साढ़े चार बजे
मैं आज भी दोस्तों को आवाज़ देता हूँ -
सोनू ! बाबू !

जहां माँ आज भी शाम को
पड़ोसन
नहीं बहन के संग बैठकर
बुनती है गर्म स्वेटर |
जहां खिड़की की ओर नज़र कर
कल डराकर सुलाया था माँ ने मुझे -
बाहर
लोमड़ी
बैठी
है |
वो खिड़की अभी जाने किसे सुलाती होगी ?

जिसे आज भी मैं अपना घर मानता हूँ
नहीं ये मेरा घर नहीं है |
वक़्त नहीं थमता
कदम थमते हैं |
वक़्त क्यों नहीं थमता ?
ग़र थमता तो रोक देता उसे |
गेंद से दीवाल पर खेलता था
जाने वो निशां मिटे होंगे कि नहीं ?

वहीँ ज़मीन पर
नींबू का घाना मंडप
जिसमे कोई अकेला नींबू
टूटने से छूट जाता
और तब दिखलाई देता
जब पककर लाल बहुत हो जाता -
जैसे मेरे(?) आँगन में
सुबह को शाम का सूरज
या शायद
शाम को सुबह का सूरज
छूटकर रह गया पूरब में |

छूटकर रह गया वहां दिन
छूटकर रह गया मेरा दिन वहां
जैसे मैं छूटकर रह गया वहाँ ||

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