Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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क्रान्ति कन्या

 

वो क्रान्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

यही लड़की समा गयी थी
अंधे की आँखों में
लंगड़े की नसों में
जब येरुसलेम में उसने हमें छूआ
और इस सुनहरी शाम का अंत
उस दर्दनाक क्रूस पर हुआ |

वो क्रन्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

तिरंगे में लिपटी
ये लड़की
गयी थी डांडी
हमने नमक बनाया
और इसी नमक का क़र्ज़ चुकाने को
किसी ने उसे मार गिराया |

वो क्रन्तिकारी थी
मतवारी थी
चली जा रही थी
इन्कलाब के गाने गाते
और हम खुद की आज़ादी के सपनों संग
उसके पीछे चले जाते

इसी लड़की के गीतों को
नए शहर के लोगों ने गाया
उसी देश के शासक ने
विएतनाम को जलाया
और किताबें भरी आज़ादी के गीतों से
और अगले दिन आकाश को खाली सा पाया |

इस क्रान्ति कन्या के बच्चे
जो कौवे की तरह जन्मे थे
अनाथ कहलाये
स्कूल गए
पर धूप नहीं पहुंची
सपने देखे -
आज़ादी नहीं
भूतों के !
सुनसान सड़कों पर
'माँ-माँ' चिल्लाकर सो गए
भूखे पेट
बगल से ट्रेन गुज़री
और ऐसे ही किसी दिन
इन बच्चों ने अपने यूनिफॉर्म को जला दिया |

उस दिन मैं भी नहीं समझ पाया
जब उस लड़की ने
मेरे जूते के फीते बांधे थे
और कान में प्यार से कहा था-
"संभल कर चलना
गिरना मत ||"

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