Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कहाँ पे जायेगी लेकर शिकस्तपाई मुझे

 

कहाँ पे जायेगी लेकर शिकस्तपाई मुझे
कि दूर दूर भी मँज़िल नज़र न आई मुझे

 

न जाने लिख गया है क्या वो इस इबारत मेँ
अजब निगाह से घूरे है रौशनाई मुझे

 

मैँ उम्र भर तेरी चौखट पे सर झुकाये रहा
तलाशती ही रही जग मेँ पारसाई मुझे

 

हमारे हाल पे हँस तो रहे हो कम से कम
यूँ रास आ रही है अब ये जग हँसाई मुझे

 

तेरे बदन को जो छाले तमाम देती है
वो घूप और वो गर्मी कभी न भायी मुझे

 

नज़र अँदाज़ ही करते रहे तो लौटूँगा
भुलाये जा रही है कब से रहनुमाई मुझे

 

हमारी ज़र्फ़ ने माँगा है बस यही मौला
तू हक़ हलाल की देता रहे कमाई मुझे

 

अबस छुपाये हूँ 'शायर' ये अश्क़ आँखोँ मेँ
किसी कि याद भी आयी तो इन्तिहाई मुझे

 

 

 

*** शायर¤देहलवी ***

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