मीरो ग़ालिब सी है आशुफ़्ता बयानी मेरी
सिर्फ़ तू ही नहीँ दुनिया है दीवानी मेरी
तुझको जाना है तो जा इतना मगर सुनता जा
चार छह रोज़ मेँ है ख़त्म कहानी मेरी
फिर ये बरसात ये सावन तो चले आयेँगे
लौट के फिर नहीँ आयेगी जवानी मेरी
शहर मेँ कौन है जो अब मुझे पहचानेगा
एक तुझसे ही रफ़ाक़त थी पुरानी मेरी
शाम दरिया ने बुलाया था मुझे मिलने को
देख कर रह गया हैरान रवानी मेरी
मुझको मरना कभी दुश्वार न होता इतना
बेवफ़ा तूने कही एक न मानी मेरी
ये ग़ज़ल दीद ए 'शायर' का तुझे नज़राना
साथ लेते हुऐ जाना ये निशानी मेरी
*** शायर¤देहलवी ***
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