कृष्ण भक्ति परम्परा में अष्टछाप का नाम विषेष उल्लेखनीय है। महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके सुपुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा स्थापित आठ भक्त कवियों का एक समूह था। इन भक्त कवियों ने अपने विभिन्न पदों एवं कीर्तन के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की विषिष्ट लीलाओं का गुणगान किया। अष्ट छाप के समस्त कवि वल्लभाचार्यजी के आदर्षों और उनकी उपासना पद्वति के समर्थक और उपासक रहे है। इन भक्तिकालीन संत कवियों में सूरदास प्रमुख थे तथा नन्ददास का नाम भी उल्लेखनीय रहा है।
अष्टछाप के कवियों में पुष्टीमार्ग का अनुसरण करने वाले आचार्य वल्लभाचार्यजी के चार प्रमुख संत कवि थे तथा उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ के भी चार षिष्य थे। आठों ही संत कवि ब्रजभूमि के निवासी थे तथा अपने परम इष्टदेव श्रीनाथजी के सम्मुख पद रचना करते हुए गाया करते थे। उनके गीत संग्रहों को, अष्टछाप कहा जाता है। अष्टछााप का शाब्दिक अर्थ ‘‘आठ मुद्राएं’’ होती है। इन भक्त कवियों ने ब्रज भाषा में ही पद रचना करते हुए भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का गुणगान किया है। अष्टछाप के कवियों का विवरण इस प्रकार है।
कुंभनदास 1448ई.-1582ई.
सूरदास 1478ई.-1580ई.
कृष्णदास 1495ई.-1575ई.
परमानन्ददास 14़91ई.-1583ई.
गोविंदस्वामी 1505ई.-1585ई.
छीतस्वामी 1481ई.-1585ई.
नंददास 1533ई.-1586ई.
चतुर्भुजदास 1530ई.-1591ई.
अष्टछाप के कवियों में सूरदास का प्रमुख नाम है। सूर ने भगवान श्री कृष्ण की साख्य भाव तथा वात्सल्य भाव की साधना की है। सूर की प्रमुखता का उल्लेख करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा हैं कि अष्टछाप के कवियों में सबसे ऊँची वीणा अंधे कवि सूरदास की थी। सूरसागर में रागानुराग की गंभीर व्याख्या की गई है। इसी गं्रथ में साख्य व वात्सल्य रस का परिपाक हुआ है। प्रभु की अनन्य भक्ति के लिए पुष्टि मार्ग को प्रधानता से अभिव्यक्त किया गया है। पुष्टि को चार भागो में विभक्त किया गया है। 1. प्रवाह पुष्टि 2. मर्यादा पुष्टि 3. पुष्टि पुष्टि 4. शुद्ध पुष्टि- शुद्ध पुष्टि का प्रतिपादन विषेष रुप से सूर साहित्य में किया गया है। ऐसी मान्यता हैं कि पुष्टि पुष्टि द्वारा ही भक्त के हृदय में परम पिता के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। महाकवि सूर ने कृष्ण की उपासना का स्वरुप लिखा है। - मेरे जिय ऐसी आज बनी, छाण्डी गुपाल और जो सुमिरौ तो लाजों जननी।।
नवधा भक्ति की समग्र धाराओं में समन्यव का प्रतिपादन हुआ है। सूर माधुर्य भक्ति के समर्थक रहे है। यषोदा और नन्द के वात्सल्य भाव तथा मथुरा गमन के बाद की विरह वेदना का मार्मिक चित्रण सूरसागर में प्रस्तुत हुआ है। संत कवि सूर की वात्सल्स, साख्य एवं कान्ता भाव से बालकृष्ण की उपासना विषेष रही है। नन्द यषोदा एवं गोपियाँ भगवान कृष्ण के मन भावन सौन्दर्य से अभिभूत रहे है। बाल लीलाओं के साथ ही कवि सूर ने चीर हरण, गौरस लीला, दान लीला का वर्णन भी विषेष रुप से प्रस्तुत किया है। वस्तुतः कृष्ण काव्य के प्रमुख सूत्रधार कवि सूर और आचार्य वल्ल्भ रहे है। सूरदास जी को पुष्टि मार्ग का जहाज कहा गया है।
अष्टछाप में कृष्ण की लीलाओं का बखान करने वाले आठ संत कवियों का समूह है जिन्हेाने कृष्ण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए उनकी लीलाओं का विषिष्ट भाव प्रवणता के साथ वर्णन किया है जो संगीत की विषेष राग रागिणियों में आबद्ध है। 12वीं और 13 वीं शताब्दी के लगभग विष्णु स्वामी, निम्बार्काचार्य और माधवाचार्य ने दक्षिण व पूर्वी भू भाग में इस मार्ग को प्रचारित किया था। विक्रम की 16वीं शताब्दी के बीच महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन आचार्यों की कृष्ण भक्ति से प्रेरित होकर पुष्टि मार्ग चलाया था। इन्होने श्रीनाथ जी के मंदिर की स्थापना की और कीर्तन सेवा का शुभारम्भ किया। पुष्टिमार्गीय सेवा हेतु क्रियात्मक सेवा के रुप में मंगल, श्रंृगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या आरती तथा शयन की व्यवस्था निरुपित की गई। प्रत्येक सेवा क्रम के लिए विषेष गीतों की रचना करते हुए उन्हे संगीतबद्ध किया गया। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के चार षिष्य इस सेवा में संलग्न किये गये। जिनके नाम हैं सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास और कृष्णदास। महाप्रभु के देवलोक गमन के बाद उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की सेवा व्यवस्था का संचालन किया। इस सेवा को स्थिरता प्रदान करने के लिए। चार महाप्रभु के और चार विट्ठलनाथ के षिष्य प्रमुख माने जाते है। विट्ठलनाथजी के षिष्य थे नन्द दास, चतुर्भुज दास, गोविन्द स्वामी और छीतस्वामी। अष्टछाप के कवियों में आठों नैमेतिक कार्यों के अनुकूल अनुराग, खण्डिता भाव, जागरण, बालवर्णन, वेषभूषा तथा कृष्ण के सखा, गौ चारण , माखनचोरी आदि का भावभीना वर्णन किया है। रासलीला के पदों का विवरण भी मिलता है।
इन आठों भक्त कवियों ने श्रीनाथ जी के मन्दिर की दैनिक लीला में भगवान कृष्ण की सखा के रुप में आराधना की अतः इन्हे अष्ट सखा के नाम से भी जाना जाता है। अष्टछाप की स्थापना 1565 ईस्वीं में हुई। अपनी अगाध भक्ति भावना के कारण ये कवि भगवान कृष्ण के सखा स्वरुप भी माने जाते है। परम भगवत् भक्ति के कारण इन्हे भगवदीप भी कहा गया है।
परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्नण थे तथा कृष्णदास क्षूद्र वर्ग में आते है तथा कुम्भनदास राजपूत घराने से सम्बद्ध थे। सूरदास को कुछ लोग ब्रह्नभट्ट मानते है तो कई भक्त सारस्वत ब्राह्नण होने का दावा करते है। गोविन्द दास सनाढ्सय ब्राह्नण थे और छीतस्वामी माथुर (चैबे) थे। नन्ददास जी भी सनाझढ्य कुल में पैदा हुए। चैरासी वैष्णवों की वार्ता तथा दौ सौ वैष्णवन की वार्ता में अष्टछाप के कवियों का विस्तार से जीवनवृत अंकित है।
श्री गोस्वामी विट्ठलनाथ नेे संवत् 1602 के लगभग अपने पिता वल्लभ के 84 षिष्य और अपने 252 षिष्यों में से अष्टछााप के षिष्यों का चयन किया। पुष्टि मार्ग के नायक संत कवि सूरदास ने श्रृंगार और वात्सल्य रस में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ सूरसागर है। नन्ददास ने रास पंचाध्यायी, भ्रमरगीत एवं सिद्धान्त पंचाध्यायी की रचना की। परमानन्द दास ने ‘‘परमानन्द सागर ’’ ग्रंथ का निर्माण किया। कृष्ण दास की रचनाओं में भ्रमर गीत एवं पे्रम तत्व का उल्लेख है। कुम्भनदास ने फुटकर पद रचना की । छीतस्वामी और गोविन्द स्वामी का कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। चतुर्भुज दास ने द्वादष यष तथा भक्ति प्रताप ग्रंथों की रचना की।
समस्त अष्टछाप के कवियों का प्राधान्य 84 वर्ष तक रहा ये सभी संगीतज्ञ एवं कीर्तन कार के रुप में श्रीनाथ जी की पूजा अर्चना कीर्तन वन्दना करते थे। श्री गोस्वामी विट्ठलनाथ कीे इन आठों कवियों पर अपनी कृपा तथा आषीर्वाद की छाप रही इसीलिए अष्टछाप के कवियों की भक्ति साधना का प्रभाव अनवरत बना रहा। सभी कीर्तनकार तथा संगीत कला में निपुण थे। वे सभी श्रीनाथजी के मंदिरों में विभिन्न राग रागिनियों में अपने पदों को ताल स्वर में निबद्ध कर कीर्तन किया करते थे जो परम्परा आज भी विद्यमान है।
शंकर लाल माहेष्वरी
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY