अँधियारे मेँ जैसे जलती एक शमाँ लगती है
कुछ ही दिन घर मेँ ठहरे जो वो मेँहमाँ लगती है
झूठा गुस्सा दिखलाकर ही प्यार जताती है वो,
मुझको मेरी बेटी मेरी माँ जैसी लगती है ।
- ये फ़नकार सबसे जुदा बोलता है
ख़री बात लेकिन सदा बोलता है,
विचरता है ये कल्पनाओं के नभ में,
मग़र इसके मुँह से ख़ुदा बोलता है ।
- बात दलदल की करे जो वो कमल क्या समझे ?
प्यार जिसने न किया ताजमहल क्या समझे ?
यूं तो जीने को सभी जीते हैं इस दुनिया में,
दर्द जिसने न सहा हो वो ग़ज़ल क्या समझे ?
- मन्ज़िलों से देखिए हम दूर होते जा रहे है
हम भटकने के लिए मज़बूर होते जा रहे है
काम जब अच्छे किए तो कुछ तबज्जों न मिली,
जब हुए बदनाम तो मशहूर होते जा रहे है ।
शरद तैलंग
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